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Monday 14 September 2015

क़त्ल - आदत या मजबूरी

आजकल हिंदी भाषा से मैं बहुत ज़्यादा प्रभावित हूँ। हाल  ही में मैंने हिंदी की दो बोलकुल भिन्नधारा की किताबें पढ़ी । मज़ा आया । "क़त्ल की आदत" जो कि मेरे बहुत ही प्रिय मित्र, श्री जीतेन्द्र माथुर, द्वारा लिखी पहली किताब है, श्यामगढ़ नामक एक काल्पनिक स्थान के पृष्ठभूमी पर पांच हत्याकांडों की तफ्तीश करते हुए एक ईमानदार पुलिस ऑफिसर  की कहानी है।  और दूसरी किताब "सफर के छाले हैं " हिंदी साहित्य जगत की माननीया, विदूषी कवियत्री  डा: सुधा गुप्ता की अतुलनीय हाइबन व हाइकू के मनोग्राही संग्रह है। दोनों ही किताबें मेरे दिल को भिन्न-भिन्न प्रकार से छू गईं  हालांकि दोनों किताबें एक दूसरे से मेल नहीं खातीं  ओर  एक दूसरे की परिपूरक भी नहीं है।

एक ही पोस्ट में दोनों किताबों के बारे में लिखें तो जगह कम पढ़ जायेगी व न्यायोचित भी नहीं होगा; इसलिए केवल माथुर साहब की लिखी किताब के सदर्भ में ही यहाँ  बात करूंगी। जैसा की मैंने पहले ही कहा है कि  यह  एक रहस्योपन्यास है, अत: इसकी कहानी का रोमांचकारी व उत्तेजक होना स्वाभाविक है । परन्तु यह नॉवल इन सब  संज्ञाओं से परे एक ऐसी कहानी का उपस्थापन करती है जिसमें  हत्या-केन्द्रिक डिटेक्टिव नॉवलों के साधारण मसालों के अतिरिक्त भी जीवन दर्शन, जीवन आदर्श और कार्यक्षेत्र में सफलता-असफलता की ग्लानि-जनित विषाद से उपजे  मनस्तत्व का विशद एवं उल्लेखनीय व्याख्यान है। परन्तु यह व्याख्यान प्रत्यक्ष नहीं अधिकन्तु परोक्ष रूप में हत्याओं के तहकीकात के चलतें विबिन्न व विचित्र घटना-समूहों में कहीं न कहीं अन्तर्निहित हैं जो कि  पाठक-पाठिकाओं को लिखित के बीच जो अलिखित है उसे देखने या पढ़ पाने की क्षमता पर निर्भर है ।  और इसीलिये यह पुस्तक और बाक़ी अपराध कथाओं (क्राइम-नॉवलों) से अलग है ।

संजय सिन्हा, श्यामगढ़ पुलिस चौकी का सब इंस्पेक्टर है, जो अपने काम को बहुत संजीदगी से लेता है।  परन्तु भरसक प्रयास करने के बावजूद भी संजय यह साबित नहीं कर पा रहा है कि  इन बेरहमी से कीए जाने वाले  कत्लों के पीछे किसका हाथ है ?

इसमें संजय की सरकारी काम काज के सीमित रूपरेखा में अपने कर्तव्य-पालन की अक्षमता, उसके अंतर्मन के  द्वन्दों  की  गाथा, उसकी कलुषित अतीत  जो  बार-बार उसीको मुजरिम के कठघरे में ला खड़ा कर देता  है, मानवीय विवशताओं  का सजीव चित्रण है।   क्या संजय किसी रोज़ इन कश्मकशों से उबर  पाएगा ? क्या संजय कामियाबी की राह पे आगे बढ़ जाएगा? क्या उसके हितैषी सच में उसके खैरख्वाह साबित होंगे ? क्या वे कभी अपने आप से आँखें मिलाके खुद ही से जवाबतलबी  कर पायेगा ? इन्ही पेचीदा सवालों के सरल उत्तर क़त्ल की आदत नामक किताब के पन्नों में छुपी है।

क्या आप ये  राज़ जानना चाहेंगे ?

माथुर साहब ने  अत्यंत सरल व सहज  ढंग में कहानी का प्रस्थापन कीया है। सभी पात्रों के चरित्रायण वास्तविकतापूर्ण है । कहानी का प्रवाह पाठक को पुस्तक से जोड़ कर रखता  है ।  कहानी में जैसे रोमांच है वैसे ही सीख भी ।  क़त्ल करना बुरी बात है यह हम सब जानते हैं किन्तु क़त्ल की आदत पढ़ जाना तो समाज एवं स्वयं के लीये भी कितना घातक सिद्ध हो सकता है उसीको दर्शाना इस कहानी का मानो मूल उद्देश्य है।

यह माथुर साहब की सर्व प्रथम सृजन (उपन्यास के रूप में)   है और उनकी कृतियाँ इसी तरह हमारी विवेक व मन को झंझोरते रहे इसी उम्मीद के  साथ माथुर साहब से अनुरोध करती हूँ कि  आपकी कलम कभी न थके और आप हमेशा ऐसे ही लिखते रहें ताकि हमारे मनोरंजन के साथ ही साथ हमारे बौद्धिक व मानविक विकास के भी  द्वार आपके अविराम  लेखन के माध्यम से  प्रशस्त हो ।

माथुर साहब को अशेष धन्यबाद सहित……  


(यह पोस्ट लेखक के अनुरोध पर आधारित बिलकुल नहीं है। यह केवल एक आग्रही पाठिका के उत्साह व आनंद की अभिव्यक्ति है )

8 comments:

  1. apne vichar aapne bahut hi sundar dhang se abhivyakt kare hain .. Abhivadan. Sudha ji ki pustak ki post padhne ke liye main utsuk hoon ...... :)

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  2. तह-ए-दिल से शुक्रिया गीता जी आपका जो आपने मेरी इस रचना को इस काबिल पाया ।

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  3. I didn't know you could write so well in Hindi. I am certainly intrigues about the book and want to read it. Well done!

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  4. Mathur Sahab ki pustak ki samiksha ruchikar lagi, aur pustak parhne ke liye utsuktaa jaagi:)
    Aapki Hindi ke pravaah se main abhibhoot hoon!

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