क्या तुम वही हो?
जो भरी दोपहरी में
धुप से खेला करती थी?
तीसरे माले की बरसाती की
वह कोने की खिड़की
जिसको सहलाती नीम
के पेड़ की टहनियों पे
दबे पांव रख कर
कपास सी बादलों को
गुदगुदाना चाहती थी
क्या तुम वही हो?
क्या तुम वही हो ?
जो ख्वाबों को संजोती थी
कल के लिए और
गुनगुनाती थी गीत आशाओं भरी
क्या तुम वही हो ?
जो दहलीज़ लांघ कर
अजनबी किनारों के धुल छाना करती थी
और अन्जान चेहरों के
मक्कार इरादों से सहम गयी थीं
क्या तुम वही हो ?
जो दिन रात के मेहनत के
बूंदों में आंसुओं को छुपा लेती
और ज़िन्दगी के खोखलेपन
को एक नया अंजाम देने
का हौसला जुटाती थी
क्या तुम वही हो ?
Are you the same ?
Who would play with sunshine
In desultory afternoons
And dare to step
Oh! So lightly on
The delicate twigs of
The Neem
tree
Brushing against the
Lone attic window
To tickle the cottony clouds
Are you the same?
Who would sing
Lullabies of hope
To save dreams
For the morrow
Are you the same?
Who broke the bounds
To caress the sands of
Unknown shores
Are you the same?
Who dreaded the masks of
The masqueraders …
The inevitable betrayal
Of deceit …
Are you the same
Who would diffuse
The tears in the
Sweet smelling sweat
Of days’ toil to live
A vacant lie
With bravado
Are you the same?
बेहद सुन्दर पंक्ति
ReplyDeleteThank You
Deleteनिर्मम जीवन के कटु सत्य को कोमलतापूर्वक व्यक्त करती हुई ख़ामोश दास्तान! बेहद सुंदर..
ReplyDeleteThank you Amitji
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