वो सांवली सी लड़की
मेरे पड़ोस की नहीं
पर मैंने उसे देखा है
कई मर्तबा खुद को
निहारते हुए आईने में
पलकों के पगडंडियों को
काजल से पोत कर
सपनों पे और रंग चढ़ाया है जैसे
होठों पे हंसी टिका कर
अनगिनत सवालों का जवाब माँगा है
गालों पे महीन से झुर्रियों की तरकश से
पर फिर भी उसने सदियाँ लगा दी
खुद को सजाने संजोने में
और मैं यहाँ वक़्त के नोकीले काँटों
से चुभ कर एक लम्हा ढूंढ़ती फिरती हूँ
अपना चेहरा भीड़ में खोजने के लिए
बहुत सुंदर! दर्द भीतर तक चीरता है..
ReplyDeleteA stranger to myself, estranged from reality. A poem in the mirror...
ReplyDelete