Thursday, 26 November 2015

The Old Man And His Songs



The old man sits by the road
A huge round turban like a crown
On his dome-shaped head
Layers of vibrant colours
A red and a gold robe
He adorns
Flowing like a crimson fall
Around his scrawny frame
The once-white-now-yellow yards 
Stretch from his waist to his bow legs 
Right till the ankles cling
The bow in his right hand is poised
Always to kiss the strings lightly 
Drawn on his left arm -"The Sarangi its called"
He utters and starts singing along
His sonorous lilt
Reaches up to the sky and talks to the 
Clouds dancing in sunshine
Radiant - fragrance of a gypsy land
Carries the breeze with every note
Crescendo....Diminuendo....wave after wave
Rise and fall in the resonance of his heart
He smiles as the song ends on a sweet echoing chord
The corner of his eyes crinkle
And the smile etched on his face illumine
The rugged contours, the stained yellow teeth
And the gaps in-between shimmer
The silver coins left by passers-by at his feet
In enrapture of something beyond
I ask him,"What song is it?
Where have you learnt?"
The hollows of his cheeks quiver in sheer glee
And his answer is as simple as he
"Life teaches many."
With that he arranges his bow 
Again to brush past the strings in a
soft caress
He smiles to his soul's content
Till the stars lit up the firmament
And the shadows extend deep and tall



Wednesday, 28 October 2015

Let It Be!!









"Let it be....."
I said tossing a lock
In cold air
Stomping a foot
In dust
Pouting like a
Pampered brat
"Let it be......."
I repeated haughtily
As though I never cared
"If dreams break
Let it be
If words dry up
Let it be
If heart loses
The only chance
Let it be
If the world
Turns its back
What do I care
And what do they care
If I lose my way
In dreary desert
Without leaving
My footprints behind
What do they care
Let it be....
Let it be....
Let it be ...."




The mad moon
Looked down
And laughed heartily
Deriding my clumsy
Act.........of not caring
The night air stung


While I swallowed
A lump of ice
Battling a rage


Defeat is not easy
Neither is winning
So...


Let it be....na?

Thursday, 1 October 2015

ग्रहण


यह राजेश गथवाला के द्वारा ली गयी सुपरमून का चित्र है  




मेरे मित्र नरेश जी के क्लासमेट राजेश गथ्वालाजी ने हाल ही में हुए चन्द्र ग्रहण के समय कैलिफोर्निया के नभ पर  दुल्हन जैसी 'सुपर मून' को अपने कैमरे के लेंस में बड़ी खूबसूरती से क़ैद किया था ।

कुछ दिन पूर्व अमावस पर कुछ यूँ लिखा था :

अमावस की 
रात, हुई तश्तरी 
चाँद की गुम


पर राजेश जी की सुपरमून का सौंदर्य और सजीलापन शब्दों में बयान करना मानो असंभव सा लगा । क्या कहें उस चित्रकार का  जो हर पल चमत्कारी रंग हमारे जीवन के आकाश पर बिखेरता है? कभी भरपूर खुशी तो कभी दुखों का ढेर लगा देता है । कभी भावनाओं का जमघट, कभी  आकांक्षाओं की लम्बी उड़ान, कभी  मिलन के गीत तो कभी  विदाई का दर्दीला गुहार। दिल के दरवाज़ों  पे कितने सारे मेहमान दस्तक देते रहते हैं । पर कोई भी ठहरता नहीं, रुकता नहीं । आते हैं … चले जाते हैं । छुपन छुपाई की खेल की भाँती।  और हम वाट  निहारते रह जाते हैं....

इसी तरह रात करता होगा इंतज़ार चाँद की । पर ग्रहण तो ग्रहण है । वह न सुने किसीकी।  तो क्या करे रात अभागन ?


चाँद सिंदूरी 
आड़ में घूँघट की 
रात बिर्हन (?)

या यूँ कहें :

छुप्न  छुपाई
खेले सखी संग वो
चुल्बुल चाँद  
  
या फिर :

माथे पे सजे 
दुल्हन सी रात की 
अंगारी बिंदी


और :

चाँद ! रूह में 
तेरी, लहक बाक़ी
सर्द आग की

बुझने न दे 
दहक धीमी, ओट
 में ये राख की 

साँसों में  चुभे
 चांदनी, जैसे रेणु
सी पराग की

पी से जा मिल,
है शाम  गाती  गीत
प्रीत राग की

तपिश हो या
ऊफन, बात तो है
 तेरे भाग की

ओढ़ ले कफ्न
दफ़्न  कर स्वप्न थे
जो विराग की

सेज है सजी
फूलों से लदी , तेरे
चिर्सुहाग की

चाँद! रूह में 
छुपी, स्पर्श है अभी 
सर्द आग की


इन हाइकुओं का सत्य, सौंदर्य, ओचित्य व प्रासंगिकता दिग्गज पाठक-पाठिकाओं के काव्य-ज्ञान व आलोचना के सुपुर्द  करती हूँ। 

खासकर यह पोस्ट अमितजी को समर्पित है जिन्होंने हिंदी हाइकू, हाईबन, हायगा व हिंदी भाषा के अन्य  कविताओं और शेरो शायरी से मेरा परिचय कराया और  बहुत ही धैर्य व आग्रह  के साथ मुझे हिंदी में लिखने के लिए प्रोत्साहित किया ।  आशा करती हूँ आप का  प्रोत्साहन मुझे आगे भी इसी तरह मिलती रहेगी।   


Friday, 18 September 2015

बेक़रार

कवियों ने "रात" शब्द को अपने कविताओं में नाना प्रकार से व्यवहार में लाये हैं | सोचिये तो इस शब्द में ऎसी क्या कशिश है कि  कवियों के मन को लुभा जाती है ? हालांकि रात शब्द अनेकों नकारात्मक  विशेषणों से कलुषित है। रात को ही मनुष्य की अवचेतन (sub-conscious) मन घिनौले व्याधियों को जन्म देती है । रात के अंधेरों में ही जघन्य अपराधों की दुनिया उजागर होती है । रात की आग़ोश में दिल के सोये हुए दर्द जागृत होते है। रात चैन हरती भी है, सुख के सपनें भी दिखाती है, रात कल्पनाओं की तिलिस्मी नजारें जगे आँखों के सामने ला खड़ा करती है तो यह रात ही हमें अपने अधूरेपन का एहसास दिला जाती है । रात विचित्र है, रात रहस्यमयी है, रात स्वप्निली है, रात अनोखी है। रात  ऐसा समा बांधती है कि  हमारे अंतर्मन की गहरे अनुभूतियों से हमारे चेतन मन का परिचय होता है। भूले भटके यादें इसी रात को ही हमारे ज़हन का दरवाज़ा खटखटाते है। और अनायास ही कवि कह उठता है कि "रात भर सर्द हवा चलती रही, रात भर हमने अलाव तापा … रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने "  

कवि ने रात के कई रूप दिखाए  ……………… "रात दुल्हन जैसी", "रात भिखारन", "रात नशीली सी", " रात बंजारन", "प्यासी रात", " बासी रात", "तड़पती रात", "बरसती रात " , "गूँगी रात ", "बोलती  रात", "बेवा रात", "जलती रात " "खुश्क रात", "गीली  रात", "शर्मीली रात" "हठीली रात" ……… अनगिनत विश्लेषण , अनेकों उदाहरण ..............

पर मैं कहती हूँ  

पूनम नहीं 
अमावस भी नहीं 
रात रात है 

लौ सी है जली 
फिर बर्फ सी गली 
कायनात है 



Monday, 14 September 2015

क़त्ल - आदत या मजबूरी

आजकल हिंदी भाषा से मैं बहुत ज़्यादा प्रभावित हूँ। हाल  ही में मैंने हिंदी की दो बोलकुल भिन्नधारा की किताबें पढ़ी । मज़ा आया । "क़त्ल की आदत" जो कि मेरे बहुत ही प्रिय मित्र, श्री जीतेन्द्र माथुर, द्वारा लिखी पहली किताब है, श्यामगढ़ नामक एक काल्पनिक स्थान के पृष्ठभूमी पर पांच हत्याकांडों की तफ्तीश करते हुए एक ईमानदार पुलिस ऑफिसर  की कहानी है।  और दूसरी किताब "सफर के छाले हैं " हिंदी साहित्य जगत की माननीया, विदूषी कवियत्री  डा: सुधा गुप्ता की अतुलनीय हाइबन व हाइकू के मनोग्राही संग्रह है। दोनों ही किताबें मेरे दिल को भिन्न-भिन्न प्रकार से छू गईं  हालांकि दोनों किताबें एक दूसरे से मेल नहीं खातीं  ओर  एक दूसरे की परिपूरक भी नहीं है।

एक ही पोस्ट में दोनों किताबों के बारे में लिखें तो जगह कम पढ़ जायेगी व न्यायोचित भी नहीं होगा; इसलिए केवल माथुर साहब की लिखी किताब के सदर्भ में ही यहाँ  बात करूंगी। जैसा की मैंने पहले ही कहा है कि  यह  एक रहस्योपन्यास है, अत: इसकी कहानी का रोमांचकारी व उत्तेजक होना स्वाभाविक है । परन्तु यह नॉवल इन सब  संज्ञाओं से परे एक ऐसी कहानी का उपस्थापन करती है जिसमें  हत्या-केन्द्रिक डिटेक्टिव नॉवलों के साधारण मसालों के अतिरिक्त भी जीवन दर्शन, जीवन आदर्श और कार्यक्षेत्र में सफलता-असफलता की ग्लानि-जनित विषाद से उपजे  मनस्तत्व का विशद एवं उल्लेखनीय व्याख्यान है। परन्तु यह व्याख्यान प्रत्यक्ष नहीं अधिकन्तु परोक्ष रूप में हत्याओं के तहकीकात के चलतें विबिन्न व विचित्र घटना-समूहों में कहीं न कहीं अन्तर्निहित हैं जो कि  पाठक-पाठिकाओं को लिखित के बीच जो अलिखित है उसे देखने या पढ़ पाने की क्षमता पर निर्भर है ।  और इसीलिये यह पुस्तक और बाक़ी अपराध कथाओं (क्राइम-नॉवलों) से अलग है ।

संजय सिन्हा, श्यामगढ़ पुलिस चौकी का सब इंस्पेक्टर है, जो अपने काम को बहुत संजीदगी से लेता है।  परन्तु भरसक प्रयास करने के बावजूद भी संजय यह साबित नहीं कर पा रहा है कि  इन बेरहमी से कीए जाने वाले  कत्लों के पीछे किसका हाथ है ?

इसमें संजय की सरकारी काम काज के सीमित रूपरेखा में अपने कर्तव्य-पालन की अक्षमता, उसके अंतर्मन के  द्वन्दों  की  गाथा, उसकी कलुषित अतीत  जो  बार-बार उसीको मुजरिम के कठघरे में ला खड़ा कर देता  है, मानवीय विवशताओं  का सजीव चित्रण है।   क्या संजय किसी रोज़ इन कश्मकशों से उबर  पाएगा ? क्या संजय कामियाबी की राह पे आगे बढ़ जाएगा? क्या उसके हितैषी सच में उसके खैरख्वाह साबित होंगे ? क्या वे कभी अपने आप से आँखें मिलाके खुद ही से जवाबतलबी  कर पायेगा ? इन्ही पेचीदा सवालों के सरल उत्तर क़त्ल की आदत नामक किताब के पन्नों में छुपी है।

क्या आप ये  राज़ जानना चाहेंगे ?

माथुर साहब ने  अत्यंत सरल व सहज  ढंग में कहानी का प्रस्थापन कीया है। सभी पात्रों के चरित्रायण वास्तविकतापूर्ण है । कहानी का प्रवाह पाठक को पुस्तक से जोड़ कर रखता  है ।  कहानी में जैसे रोमांच है वैसे ही सीख भी ।  क़त्ल करना बुरी बात है यह हम सब जानते हैं किन्तु क़त्ल की आदत पढ़ जाना तो समाज एवं स्वयं के लीये भी कितना घातक सिद्ध हो सकता है उसीको दर्शाना इस कहानी का मानो मूल उद्देश्य है।

यह माथुर साहब की सर्व प्रथम सृजन (उपन्यास के रूप में)   है और उनकी कृतियाँ इसी तरह हमारी विवेक व मन को झंझोरते रहे इसी उम्मीद के  साथ माथुर साहब से अनुरोध करती हूँ कि  आपकी कलम कभी न थके और आप हमेशा ऐसे ही लिखते रहें ताकि हमारे मनोरंजन के साथ ही साथ हमारे बौद्धिक व मानविक विकास के भी  द्वार आपके अविराम  लेखन के माध्यम से  प्रशस्त हो ।

माथुर साहब को अशेष धन्यबाद सहित……  


(यह पोस्ट लेखक के अनुरोध पर आधारित बिलकुल नहीं है। यह केवल एक आग्रही पाठिका के उत्साह व आनंद की अभिव्यक्ति है )

Saturday, 12 September 2015

निर्बोध

पता नहीं ये  हर पल की कश्मकश कहाँ ले जायेगी ? ये धूप  छाओं की पेचीदगी, परेशान सा आलम। और उनका मुझपर  रहम-ओ-क़रम । ख़ाक में मिल जाने का दिल करता है। बचपन में एक ग़ज़ल सुनते थे रेडियो पर - ग़ैरफ़िल्मी । तब उन अल्फ़ाज़ों के मतलब समझ नहीं आते  थे । अब जब थोड़ी थोड़ी समझने लगी हूँ तो छटपटाती हूँ। बोल कुछ इस प्रकार थे (अब इतने सालों बाद कोई ग़लती कर रही हूँ या नहीं; पर शब्द जो भी हो भावनाएं वही है जो कहना चाहती हूँ )

एहले खिरज तुम भी क्या जानो इनकी भी मजबूरी हैं 
ईश्क़ में कुछ पागल सा होना शायद बहुत ज़रूरी है  


ये खिरज साहब भी तजुर्बेकार शायर मालूम पढ़ते  हैं। कैसे, दीवानगी बोलो या बेचारगी कहो, दिल की उलझनों  को अपने शेर के मायाजाल में आबद्ध कर  लिया हँसते- हँसते।  जीवन इसी उलझन का नाम हैं शायद - पाना न पाना, पाके खो देना, खो के खोने का दू:ख और दू:ख में सुख ढूंढना और इन्हीं  नामुराद कोशिशों  में दिन गुज़ारना ।  यही  माया है -

सन्यासी भटके
दर-ब-दर
पारस मणी की
तलाश कर
जब लगा हाथ, पर
त्याग दिया
जान पत्थर

हमें  रहती है ता-उम्र  जिसकी आस  जब वह हाथ लग जाता है तब  हमें वो गवारा नहीं होता। हम उससे पीछा  छुड़ाने के मौके खोजते हैं और जब वह हाथ से निकल जाता है तो ज़ार-ज़ार उसीकी याद में आंसू बहाते हैं, बिलखते हैं, तड़पते हैं। यही  विडम्बना ही जीवन की मूल व्यथा-सार है। मनुष्य की  निर्बुद्धिता - अपने आप को ही न समझ पाना और तभी अपने आप में ही उलझे रहना ।   

कट्टी थी कल  
मिलने उसे ही मैं 
आज बेकल 

Thursday, 10 September 2015

Celebration

Sky afar
Stars glitter
Moon smiles
The night is young
Visions emerge
Dancing waves
Reaches and recedes
Evening song
Croons the breeze
Warming my heart
Melody divine
Destiny adorns
A nebulous haze
Labyrinthine maze
In vain I seek
The path beyond
But will l stall?
Or hesitate?
To surge ahead
In quest forlorn?
Not till my soul
Satiated rests
In bliss sublime
In bond ever strong
Hope is my torch
I lift ablaze
Grit is my arm
Wrapped along
Hold my hand
Despair I lest
Hold me tight
In embrace strong
Stars shall swoon and;
Fall at our feet
Moon shall glow
All day long
We shall then
March in tune
Hug in delight
The horizon beyond
Sun shine then shall
Never elope and
The nights shall
Stay forever young