Where silence speaks,words intrigue infinity and thoughts travel light years to invade the mind cells wherein simmers a volcano of ideas and images juggling to burst forth into an intricate filigree of patterns and designs, complex in its simplicity and bizarre in its mundane echoes.
Sunday, 13 December 2015
Thursday, 3 December 2015
Thursday, 26 November 2015
The Old Man And His Songs
The old man sits by the road
A huge round turban like a crown
On his dome-shaped head
Layers of vibrant colours
A red and a gold robe
He adorns
Flowing like a crimson fall
Around his scrawny frame
The once-white-now-yellow yards
Stretch from his waist to his bow legs
Right till the ankles cling
The bow in his right hand is poised
Always to kiss the strings lightly
Drawn on his left arm -"The Sarangi its called"
He utters and starts singing along
His sonorous lilt
Reaches up to the sky and talks to the
Clouds dancing in sunshine
Radiant - fragrance of a gypsy land
Carries the breeze with every note
Crescendo....Diminuendo....wave after wave
Rise and fall in the resonance of his heart
He smiles as the song ends on a sweet echoing chord
The corner of his eyes crinkle
And the smile etched on his face illumine
The rugged contours, the stained yellow teeth
And the gaps in-between shimmer
The silver coins left by passers-by at his feet
In enrapture of something beyond
I ask him,"What song is it?
Where have you learnt?"
The hollows of his cheeks quiver in sheer glee
And his answer is as simple as he
"Life teaches many."
With that he arranges his bow
Again to brush past the strings in a
soft caress
He smiles to his soul's content
Till the stars lit up the firmament
And the shadows extend deep and tall
Wednesday, 28 October 2015
Let It Be!!
"Let it be....."
I said tossing a lock
In cold air
Stomping a foot
In dust
Pouting like a
Pampered brat
"Let it be......."
I repeated haughtily
As though I never cared
"If dreams break
Let it be
If words dry up
Let it be
If heart loses
The only chance
Let it be
If the world
Turns its back
What do I care
And what do they care
If I lose my way
In dreary desert
Without leaving
My footprints behind
What do they care
Let it be....
Let it be....
Let it be ...."
The mad moon
Looked down
And laughed heartily
Deriding my clumsy
Act.........of not caring
The night air stung
While I swallowed
A lump of ice
Battling a rage
Defeat is not easy
Neither is winning
So...
Let it be....na?
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Thursday, 1 October 2015
ग्रहण
मेरे मित्र नरेश जी के क्लासमेट राजेश गथ्वालाजी ने हाल ही में हुए चन्द्र ग्रहण के समय कैलिफोर्निया के नभ पर दुल्हन जैसी 'सुपर मून' को अपने कैमरे के लेंस में बड़ी खूबसूरती से क़ैद किया था ।
कुछ दिन पूर्व अमावस पर कुछ यूँ लिखा था :
कुछ दिन पूर्व अमावस पर कुछ यूँ लिखा था :
अमावस की
रात, हुई तश्तरी
चाँद की गुम
पर राजेश जी की सुपरमून का सौंदर्य और सजीलापन शब्दों में बयान करना मानो असंभव सा लगा । क्या कहें उस चित्रकार का जो हर पल चमत्कारी रंग हमारे जीवन के आकाश पर बिखेरता है? कभी भरपूर खुशी तो कभी दुखों का ढेर लगा देता है । कभी भावनाओं का जमघट, कभी आकांक्षाओं की लम्बी उड़ान, कभी मिलन के गीत तो कभी विदाई का दर्दीला गुहार। दिल के दरवाज़ों पे कितने सारे मेहमान दस्तक देते रहते हैं । पर कोई भी ठहरता नहीं, रुकता नहीं । आते हैं … चले जाते हैं । छुपन छुपाई की खेल की भाँती। और हम वाट निहारते रह जाते हैं....
इसी तरह रात करता होगा इंतज़ार चाँद की । पर ग्रहण तो ग्रहण है । वह न सुने किसीकी। तो क्या करे रात अभागन ?
इसी तरह रात करता होगा इंतज़ार चाँद की । पर ग्रहण तो ग्रहण है । वह न सुने किसीकी। तो क्या करे रात अभागन ?
चाँद सिंदूरी
आड़ में घूँघट की
रात बिर्हन (?)
या यूँ कहें :
छुप्न छुपाई
खेले सखी संग वो
चुल्बुल चाँद
खेले सखी संग वो
चुल्बुल चाँद
या फिर :
माथे पे सजे
दुल्हन सी रात की
अंगारी बिंदी
और :
चाँद ! रूह में
तेरी, लहक बाक़ी
सर्द आग की
बुझने न दे
दहक धीमी, ओट
में ये राख की
साँसों में चुभे
चांदनी, जैसे रेणु
सी पराग की
पी से जा मिल,
है शाम गाती गीत
प्रीत राग की
तपिश हो या
ऊफन, बात तो है
तेरे भाग की
ओढ़ ले कफ्न
दफ़्न कर स्वप्न थे
जो विराग की
सेज है सजी
फूलों से लदी , तेरे
चिर्सुहाग की
सी पराग की
पी से जा मिल,
है शाम गाती गीत
प्रीत राग की
तपिश हो या
ऊफन, बात तो है
तेरे भाग की
ओढ़ ले कफ्न
दफ़्न कर स्वप्न थे
जो विराग की
सेज है सजी
फूलों से लदी , तेरे
चिर्सुहाग की
चाँद! रूह में
छुपी, स्पर्श है अभी
सर्द आग की
इन हाइकुओं का सत्य, सौंदर्य, ओचित्य व प्रासंगिकता दिग्गज पाठक-पाठिकाओं के काव्य-ज्ञान व आलोचना के सुपुर्द करती हूँ।
खासकर यह पोस्ट अमितजी को समर्पित है जिन्होंने हिंदी हाइकू, हाईबन, हायगा व हिंदी भाषा के अन्य कविताओं और शेरो शायरी से मेरा परिचय कराया और बहुत ही धैर्य व आग्रह के साथ मुझे हिंदी में लिखने के लिए प्रोत्साहित किया । आशा करती हूँ आप का प्रोत्साहन मुझे आगे भी इसी तरह मिलती रहेगी।
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Friday, 18 September 2015
बेक़रार
कवियों ने "रात" शब्द को अपने कविताओं में नाना प्रकार से व्यवहार में लाये हैं | सोचिये तो इस शब्द में ऎसी क्या कशिश है कि कवियों के मन को लुभा जाती है ? हालांकि रात शब्द अनेकों नकारात्मक विशेषणों से कलुषित है। रात को ही मनुष्य की अवचेतन (sub-conscious) मन घिनौले व्याधियों को जन्म देती है । रात के अंधेरों में ही जघन्य अपराधों की दुनिया उजागर होती है । रात की आग़ोश में दिल के सोये हुए दर्द जागृत होते है। रात चैन हरती भी है, सुख के सपनें भी दिखाती है, रात कल्पनाओं की तिलिस्मी नजारें जगे आँखों के सामने ला खड़ा करती है तो यह रात ही हमें अपने अधूरेपन का एहसास दिला जाती है । रात विचित्र है, रात रहस्यमयी है, रात स्वप्निली है, रात अनोखी है। रात ऐसा समा बांधती है कि हमारे अंतर्मन की गहरे अनुभूतियों से हमारे चेतन मन का परिचय होता है। भूले भटके यादें इसी रात को ही हमारे ज़हन का दरवाज़ा खटखटाते है। और अनायास ही कवि कह उठता है कि "रात भर सर्द हवा चलती रही, रात भर हमने अलाव तापा … रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने "
कवि ने रात के कई रूप दिखाए ……………… "रात दुल्हन जैसी", "रात भिखारन", "रात नशीली सी", " रात बंजारन", "प्यासी रात", " बासी रात", "तड़पती रात", "बरसती रात " , "गूँगी रात ", "बोलती रात", "बेवा रात", "जलती रात " "खुश्क रात", "गीली रात", "शर्मीली रात" "हठीली रात" ……… अनगिनत विश्लेषण , अनेकों उदाहरण ..............
पर मैं कहती हूँ
पूनम नहीं
अमावस भी नहीं
रात रात है
लौ सी है जली
फिर बर्फ सी गली
कायनात है
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Monday, 14 September 2015
क़त्ल - आदत या मजबूरी
आजकल हिंदी भाषा से मैं बहुत ज़्यादा प्रभावित हूँ। हाल ही में मैंने हिंदी की दो बोलकुल भिन्नधारा की किताबें पढ़ी । मज़ा आया । "क़त्ल की आदत" जो कि मेरे बहुत ही प्रिय मित्र, श्री जीतेन्द्र माथुर, द्वारा लिखी पहली किताब है, श्यामगढ़ नामक एक काल्पनिक स्थान के पृष्ठभूमी पर पांच हत्याकांडों की तफ्तीश करते हुए एक ईमानदार पुलिस ऑफिसर की कहानी है। और दूसरी किताब "सफर के छाले हैं " हिंदी साहित्य जगत की माननीया, विदूषी कवियत्री डा: सुधा गुप्ता की अतुलनीय हाइबन व हाइकू के मनोग्राही संग्रह है। दोनों ही किताबें मेरे दिल को भिन्न-भिन्न प्रकार से छू गईं हालांकि दोनों किताबें एक दूसरे से मेल नहीं खातीं ओर एक दूसरे की परिपूरक भी नहीं है।
एक ही पोस्ट में दोनों किताबों के बारे में लिखें तो जगह कम पढ़ जायेगी व न्यायोचित भी नहीं होगा; इसलिए केवल माथुर साहब की लिखी किताब के सदर्भ में ही यहाँ बात करूंगी। जैसा की मैंने पहले ही कहा है कि यह एक रहस्योपन्यास है, अत: इसकी कहानी का रोमांचकारी व उत्तेजक होना स्वाभाविक है । परन्तु यह नॉवल इन सब संज्ञाओं से परे एक ऐसी कहानी का उपस्थापन करती है जिसमें हत्या-केन्द्रिक डिटेक्टिव नॉवलों के साधारण मसालों के अतिरिक्त भी जीवन दर्शन, जीवन आदर्श और कार्यक्षेत्र में सफलता-असफलता की ग्लानि-जनित विषाद से उपजे मनस्तत्व का विशद एवं उल्लेखनीय व्याख्यान है। परन्तु यह व्याख्यान प्रत्यक्ष नहीं अधिकन्तु परोक्ष रूप में हत्याओं के तहकीकात के चलतें विबिन्न व विचित्र घटना-समूहों में कहीं न कहीं अन्तर्निहित हैं जो कि पाठक-पाठिकाओं को लिखित के बीच जो अलिखित है उसे देखने या पढ़ पाने की क्षमता पर निर्भर है । और इसीलिये यह पुस्तक और बाक़ी अपराध कथाओं (क्राइम-नॉवलों) से अलग है ।
संजय सिन्हा, श्यामगढ़ पुलिस चौकी का सब इंस्पेक्टर है, जो अपने काम को बहुत संजीदगी से लेता है। परन्तु भरसक प्रयास करने के बावजूद भी संजय यह साबित नहीं कर पा रहा है कि इन बेरहमी से कीए जाने वाले कत्लों के पीछे किसका हाथ है ?
इसमें संजय की सरकारी काम काज के सीमित रूपरेखा में अपने कर्तव्य-पालन की अक्षमता, उसके अंतर्मन के द्वन्दों की गाथा, उसकी कलुषित अतीत जो बार-बार उसीको मुजरिम के कठघरे में ला खड़ा कर देता है, मानवीय विवशताओं का सजीव चित्रण है। क्या संजय किसी रोज़ इन कश्मकशों से उबर पाएगा ? क्या संजय कामियाबी की राह पे आगे बढ़ जाएगा? क्या उसके हितैषी सच में उसके खैरख्वाह साबित होंगे ? क्या वे कभी अपने आप से आँखें मिलाके खुद ही से जवाबतलबी कर पायेगा ? इन्ही पेचीदा सवालों के सरल उत्तर क़त्ल की आदत नामक किताब के पन्नों में छुपी है।
क्या आप ये राज़ जानना चाहेंगे ?
माथुर साहब ने अत्यंत सरल व सहज ढंग में कहानी का प्रस्थापन कीया है। सभी पात्रों के चरित्रायण वास्तविकतापूर्ण है । कहानी का प्रवाह पाठक को पुस्तक से जोड़ कर रखता है । कहानी में जैसे रोमांच है वैसे ही सीख भी । क़त्ल करना बुरी बात है यह हम सब जानते हैं किन्तु क़त्ल की आदत पढ़ जाना तो समाज एवं स्वयं के लीये भी कितना घातक सिद्ध हो सकता है उसीको दर्शाना इस कहानी का मानो मूल उद्देश्य है।
यह माथुर साहब की सर्व प्रथम सृजन (उपन्यास के रूप में) है और उनकी कृतियाँ इसी तरह हमारी विवेक व मन को झंझोरते रहे इसी उम्मीद के साथ माथुर साहब से अनुरोध करती हूँ कि आपकी कलम कभी न थके और आप हमेशा ऐसे ही लिखते रहें ताकि हमारे मनोरंजन के साथ ही साथ हमारे बौद्धिक व मानविक विकास के भी द्वार आपके अविराम लेखन के माध्यम से प्रशस्त हो ।
माथुर साहब को अशेष धन्यबाद सहित……
(यह पोस्ट लेखक के अनुरोध पर आधारित बिलकुल नहीं है। यह केवल एक आग्रही पाठिका के उत्साह व आनंद की अभिव्यक्ति है )
इसमें संजय की सरकारी काम काज के सीमित रूपरेखा में अपने कर्तव्य-पालन की अक्षमता, उसके अंतर्मन के द्वन्दों की गाथा, उसकी कलुषित अतीत जो बार-बार उसीको मुजरिम के कठघरे में ला खड़ा कर देता है, मानवीय विवशताओं का सजीव चित्रण है। क्या संजय किसी रोज़ इन कश्मकशों से उबर पाएगा ? क्या संजय कामियाबी की राह पे आगे बढ़ जाएगा? क्या उसके हितैषी सच में उसके खैरख्वाह साबित होंगे ? क्या वे कभी अपने आप से आँखें मिलाके खुद ही से जवाबतलबी कर पायेगा ? इन्ही पेचीदा सवालों के सरल उत्तर क़त्ल की आदत नामक किताब के पन्नों में छुपी है।
क्या आप ये राज़ जानना चाहेंगे ?
माथुर साहब ने अत्यंत सरल व सहज ढंग में कहानी का प्रस्थापन कीया है। सभी पात्रों के चरित्रायण वास्तविकतापूर्ण है । कहानी का प्रवाह पाठक को पुस्तक से जोड़ कर रखता है । कहानी में जैसे रोमांच है वैसे ही सीख भी । क़त्ल करना बुरी बात है यह हम सब जानते हैं किन्तु क़त्ल की आदत पढ़ जाना तो समाज एवं स्वयं के लीये भी कितना घातक सिद्ध हो सकता है उसीको दर्शाना इस कहानी का मानो मूल उद्देश्य है।
यह माथुर साहब की सर्व प्रथम सृजन (उपन्यास के रूप में) है और उनकी कृतियाँ इसी तरह हमारी विवेक व मन को झंझोरते रहे इसी उम्मीद के साथ माथुर साहब से अनुरोध करती हूँ कि आपकी कलम कभी न थके और आप हमेशा ऐसे ही लिखते रहें ताकि हमारे मनोरंजन के साथ ही साथ हमारे बौद्धिक व मानविक विकास के भी द्वार आपके अविराम लेखन के माध्यम से प्रशस्त हो ।
माथुर साहब को अशेष धन्यबाद सहित……
(यह पोस्ट लेखक के अनुरोध पर आधारित बिलकुल नहीं है। यह केवल एक आग्रही पाठिका के उत्साह व आनंद की अभिव्यक्ति है )
Saturday, 12 September 2015
निर्बोध
पता नहीं ये हर पल की कश्मकश कहाँ ले जायेगी ? ये धूप छाओं की पेचीदगी, परेशान सा आलम। और उनका मुझपर रहम-ओ-क़रम । ख़ाक में मिल जाने का दिल करता है। बचपन में एक ग़ज़ल सुनते थे रेडियो पर - ग़ैरफ़िल्मी । तब उन अल्फ़ाज़ों के मतलब समझ नहीं आते थे । अब जब थोड़ी थोड़ी समझने लगी हूँ तो छटपटाती हूँ। बोल कुछ इस प्रकार थे (अब इतने सालों बाद कोई ग़लती कर रही हूँ या नहीं; पर शब्द जो भी हो भावनाएं वही है जो कहना चाहती हूँ )
एहले खिरज तुम भी क्या जानो इनकी भी मजबूरी हैं ईश्क़ में कुछ पागल सा होना शायद बहुत ज़रूरी है
ये खिरज साहब भी तजुर्बेकार शायर मालूम पढ़ते हैं। कैसे, दीवानगी बोलो या बेचारगी कहो, दिल की उलझनों को अपने शेर के मायाजाल में आबद्ध कर लिया हँसते- हँसते। जीवन इसी उलझन का नाम हैं शायद - पाना न पाना, पाके खो देना, खो के खोने का दू:ख और दू:ख में सुख ढूंढना और इन्हीं नामुराद कोशिशों में दिन गुज़ारना । यही माया है -
सन्यासी भटके
दर-ब-दर
पारस मणी की
तलाश कर
जब लगा हाथ, पर
त्याग दिया
जान पत्थर
हमें रहती है ता-उम्र जिसकी आस जब वह हाथ लग जाता है तब हमें वो गवारा नहीं होता। हम उससे पीछा छुड़ाने के मौके खोजते हैं और जब वह हाथ से निकल जाता है तो ज़ार-ज़ार उसीकी याद में आंसू बहाते हैं, बिलखते हैं, तड़पते हैं। यही विडम्बना ही जीवन की मूल व्यथा-सार है। मनुष्य की निर्बुद्धिता - अपने आप को ही न समझ पाना और तभी अपने आप में ही उलझे रहना ।
कट्टी थी कल
मिलने उसे ही मैं
आज बेकल
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Thursday, 10 September 2015
Celebration
Sky afar
Stars glitter
Moon smiles
The night is young
Visions emerge
Dancing waves
Reaches and recedes
Evening song
Croons the breeze
Warming my heart
Melody divine
Destiny adorns
A nebulous haze
Labyrinthine maze
In vain I seek
The path beyond
But will l stall?
Or hesitate?
To surge ahead
In quest forlorn?
Not till my soul
Satiated rests
In bliss sublime
In bond ever strong
Hope is my torch
I lift ablaze
Grit is my arm
Wrapped along
Hold my hand
Despair I lest
Hold me tight
In embrace strong
Stars shall swoon and;
Fall at our feet
Moon shall glow
All day long
We shall then
March in tune
Hug in delight
The horizon beyond
Sun shine then shall
Never elope and
The nights shall
Stay forever young
Stars glitter
Moon smiles
The night is young
Visions emerge
Dancing waves
Reaches and recedes
Evening song
Croons the breeze
Warming my heart
Melody divine
Destiny adorns
A nebulous haze
Labyrinthine maze
In vain I seek
The path beyond
But will l stall?
Or hesitate?
To surge ahead
In quest forlorn?
Not till my soul
Satiated rests
In bliss sublime
In bond ever strong
Hope is my torch
I lift ablaze
Grit is my arm
Wrapped along
Hold my hand
Despair I lest
Hold me tight
In embrace strong
Stars shall swoon and;
Fall at our feet
Moon shall glow
All day long
We shall then
March in tune
Hug in delight
The horizon beyond
Sun shine then shall
Never elope and
The nights shall
Stay forever young
Saturday, 5 September 2015
A Sacred Oath
Words die on quivering lips
As I hold on to a broken wish
A wish to make, a wish to break
Of timeless hold, of ephemeral swish
Words die on quivering lips.....
There's yet more to learn on the path
Of life, how to hurt and how to strife
To get over the pain of prolonged days
Of endless nights of interminable anguish
Words die on quivering lips....
Its an art to survive when you want not to
Its disastrous to die when you ought to
Navigate the waters dangerous to wade
At the other end perhaps joy awaits
Words die on quivering lips....
At the far end of the horizon there appears
Alive a rainbow of colours so bright
I think I can wrench it free from the sky
Squeeze it tight in my palms and make it mine
Words die on quivering lips....
Alas! Roars the thunderous fate
The torrents of pain how to abate
How to reason with demons within
How to let the angels win
Words die on quivering lips......
Free I shall be from shackles strong
Soul's songs are yet to be born
Dirge of pain, the venomous peg
Reign I shall within to check
Shan't let the melody die
Shan't let spring say goodbye
Shan't let hurt on self inflict
Shan't let words die on quivering lips
As I hold on to a broken wish
A wish to make, a wish to break
Of timeless hold, of ephemeral swish
Words die on quivering lips.....
There's yet more to learn on the path
Of life, how to hurt and how to strife
To get over the pain of prolonged days
Of endless nights of interminable anguish
Words die on quivering lips....
Its an art to survive when you want not to
Its disastrous to die when you ought to
Navigate the waters dangerous to wade
At the other end perhaps joy awaits
Words die on quivering lips....
At the far end of the horizon there appears
Alive a rainbow of colours so bright
I think I can wrench it free from the sky
Squeeze it tight in my palms and make it mine
Words die on quivering lips....
Alas! Roars the thunderous fate
The torrents of pain how to abate
How to reason with demons within
How to let the angels win
Words die on quivering lips......
Free I shall be from shackles strong
Soul's songs are yet to be born
Dirge of pain, the venomous peg
Reign I shall within to check
Shan't let the melody die
Shan't let spring say goodbye
Shan't let hurt on self inflict
Shan't let words die on quivering lips
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Thursday, 3 September 2015
Song Of Stars
Oh my alien star !!
On your nocturnal sojourn
I await by my attic
For your twilight lore
Of fables born
As the veil of dusk
Descends, I hide your tale
Within my soul
Oh my sleepless star!!
From faraway heathen land
I fear not to intersect
Your trajectory night long
The distant sky beckons
With an ethereal kiss of
Light, I'd rather travel without
The ugly remnants of my life
Oh my poor, humble star!!
Listen to my plea
In your hurried flight of fancy
You may somewhere miss me
Dusty is my abode
Unblemished are your feet
I revere your ascent
But fail to reach thee
A favour I ask of you
When the time comes to flee
As I close in my lashes
You be what no one has ever been
(Inspired by the song "Bhindeshi Tara" from the Bengali movie "Antaheen", a classic in its own right)
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Tuesday, 1 September 2015
Footprints
I had walked up the miles
By the shores of a roaring sea
On a wistful dawn
And footprints were etched
On the carpet of sands
Earthy sketches on a canvas of gold
Years later ....
I went up to the beach
On a dazzling morn
And looked hither & thither
Footprints were none
Swept away by the unruly tides
Left were a few broken conches
Marooned sea shells & dirty corals
But no! the footprints were gone
***
You brought spring
In greying autumn
You brought a smile
To parched lips
You brought sunshine
On melancholy days
You brought peace
To a frenzied world
You brought solace
To thudding heart
You brought dreams
To sleepless nights
You brought songs
To deafened ears
You gave life
To deadened soul
But now you are gone
And left behind
Is an empty shell
A few tear drops
And a night
Mourning in quietude
Of muted music
Of yore
By the shores of a roaring sea
On a wistful dawn
And footprints were etched
On the carpet of sands
Earthy sketches on a canvas of gold
Years later ....
I went up to the beach
On a dazzling morn
And looked hither & thither
Footprints were none
Swept away by the unruly tides
Left were a few broken conches
Marooned sea shells & dirty corals
But no! the footprints were gone
***
You brought spring
In greying autumn
You brought a smile
To parched lips
You brought sunshine
On melancholy days
You brought peace
To a frenzied world
You brought solace
To thudding heart
You brought dreams
To sleepless nights
You brought songs
To deafened ears
You gave life
To deadened soul
But now you are gone
And left behind
Is an empty shell
A few tear drops
And a night
Mourning in quietude
Of muted music
Of yore
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Saturday, 29 August 2015
Vagrant Shades
Its good that you know me not
Far apart shall echo muted pain
In intimacy, a hesitant blush
Deep, in the rush of spring
The surge of shades million
Paint the breeze melodious
Fragrant, the jewels be cherished
In dreams of a perfect mating
Glimpsed have I the
Tempest reigned in unkempt
Locks, the bohemian jazz of
Unchecked hush of whispers
Loud and the unsaid stays
Embedded in my flute tuned
To sing your songs unwritten yet
Its good that you know me not
(Inspired by this wonderful song by Tagore which can never be told in any other way....)
Monday, 24 August 2015
बरसते गीत
रिमझिम के गीतों में
नवल किशोरी के चरण
कोमल का बाँकपन
सुबह की लालिमाओं पर
घूँघट घटाओं की
दोपहर की आस्तीन पर
बादलों का आलिंगन
और साँझ के सूरजमुखी को
पावस का सहर्ष नमन
धुँए की लकीरों में
कल के बुनते शुभ स्वप्न
घनघोर हो, ज़ोर शोर हो
चीर ऐसे बरसे गगन
झन्झाओं के उन्माद में
कालिमा रात की घुल जाए
(My sincere thanks to Amitji for value-adding to this post in his own inimitable way)
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Monday, 17 August 2015
Conviction
Where there is no hope
I trudge along purposefully
Where there is no light
I glide through with confidence
Where there is no dream
I slink in deep slumber
Where there is no beginning
I look for the black hole
Perhaps I am the fool
Who beguiles treachery
I am no angel, I know
Yet I wish I had a magic wand
To sweep off the grudge
of trickling sands
And throw a challenge
To the Divine Lord
Oh Father! fear you may not
I shall overcome.....
Someday.............
I trudge along purposefully
Where there is no light
I glide through with confidence
Where there is no dream
I slink in deep slumber
Where there is no beginning
I look for the black hole
Perhaps I am the fool
Who beguiles treachery
I am no angel, I know
Yet I wish I had a magic wand
To sweep off the grudge
of trickling sands
And throw a challenge
To the Divine Lord
Oh Father! fear you may not
I shall overcome.....
Someday.............
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Monday, 10 August 2015
One Little Wish
There’s one little dream
I wish was fulfilledBefore I close my lids
To the world
To see you by my side
Caressing a note ofThousand echoes
Melting hearts
The moment’s truth
Blossoming in springUntimely though
A poor finish a frail start
Yet I wish yet I hope
Hand in handWe walk with pride
Till my darling
Death do us apart
(Inspired by Gulzar Sahab's immortal poetry)
Saturday, 8 August 2015
Far And Near
(My Bangla Poem translated in English on Readers' Request)
Seen you a zillion times
In dreams far and near
At the bus stop, on the roadside,
While boarding the tram, in the
Crowded market place
Aloof, wrapped in your own world
And I in my lazy days, sleepy noon,
In soporific haze, in dawn's early rays
With the chirp of the birds
Woken up in a maze
Hunting for you
Did you hear me calling out your name?
Perhaps yes.....perhaps no.....
But
Silence beseeched
Why I wonder
Your lame excuses....preoccupation
In the corner of your eyes lay still
Sinful secrets of lusty stare and
The taste of burning breath
The answer was hidden....there
Another day...
In the humongous throng
Where bodies blur
Our song had gone astray
In the rush of blood
A distant wish had taken
The shape of an intimate muse
In a wave of guilt I had fled
From you....
Untouched innocence I am
Vile passion, venomous you
And a sacred quest in tainted hue
And those muddy kisses
Clenched in my fist
A sky clouded in rue
Are you mine?
Or a claim anonymous?
I know not, yet
When miles sweep away
The nearness of minds
Over oceans of time
I cross with faltering steps
Alone
Seen you a zillion times
In dreams far and near
At the bus stop, on the roadside,
While boarding the tram, in the
Crowded market place
Aloof, wrapped in your own world
And I in my lazy days, sleepy noon,
In soporific haze, in dawn's early rays
With the chirp of the birds
Woken up in a maze
Hunting for you
Did you hear me calling out your name?
Perhaps yes.....perhaps no.....
But
Silence beseeched
Why I wonder
Your lame excuses....preoccupation
In the corner of your eyes lay still
Sinful secrets of lusty stare and
The taste of burning breath
The answer was hidden....there
Another day...
In the humongous throng
Where bodies blur
Our song had gone astray
In the rush of blood
A distant wish had taken
The shape of an intimate muse
In a wave of guilt I had fled
From you....
Untouched innocence I am
Vile passion, venomous you
And a sacred quest in tainted hue
And those muddy kisses
Clenched in my fist
A sky clouded in rue
Are you mine?
Or a claim anonymous?
I know not, yet
When miles sweep away
The nearness of minds
Over oceans of time
I cross with faltering steps
Alone
Thursday, 6 August 2015
Of Wound & Pain
of the wounds lets not talk
they are old and dry
though they have left behind
ugly marks, yet they are mine
of the pain I have to say more
because that is what has made me
courage? No, not that
perhaps, the will to endure
and the zest to survive
lets talk about that a little more
you tell me how you've gathered
wit, when life took on the
thorny paths, I shall tell you
my tale of unexpected twists
and you shall pat my back...
"Bravo" spell the admiration
loud and clear, well that's what
motivates to move on, dear
not wounds nor pain, but
the odd realization , my friend!
that we have made it to the
end; that is what pulls on
from time to time
rest is just a long, dreary walk
down the memory lane
they are old and dry
though they have left behind
ugly marks, yet they are mine
of the pain I have to say more
because that is what has made me
courage? No, not that
perhaps, the will to endure
and the zest to survive
lets talk about that a little more
you tell me how you've gathered
wit, when life took on the
thorny paths, I shall tell you
my tale of unexpected twists
and you shall pat my back...
"Bravo" spell the admiration
loud and clear, well that's what
motivates to move on, dear
not wounds nor pain, but
the odd realization , my friend!
that we have made it to the
end; that is what pulls on
from time to time
rest is just a long, dreary walk
down the memory lane
Labels:
English Poetry,
Life,
Motivation,
Pain,
Survival,
Wound
Tuesday, 28 July 2015
Potpourri
(I never thought I would be doing this. With my fidgety
Bangla, frail Hindi and indeterminate English, I am the fool who rushes in
where angels fear to tread. Yet here I am with a bouquet of verses in Bangla, Hindi and English. The verses do not subscribe to any established norms. Neither are
they haikus nor short poems. They are just thoughts and emotions weaved in
succinct words erupting in a greater meaning. Almost like epiphany…What is seen
is not what is transmitted and what is unsaid is actually being conveyed. There
is also a marked absence of supportive
conjunctions. The verses are just words clustered together to present a bigger picture,
a deeper intent and a subtler revelation. The translations are inexact … they
are just bilingual conveyance of similar themes as equivocal syllabically as
unequivocal in essence. Savour them as they are…………!)
(1)
বেলা বারোটা
রাস্তায় যানজট
আমি একা !
Scorching noon
Thronging crowd
Lurks the loner
Thronging crowd
Lurks the loner
भरी दोपहरी
ट्रैफ़िक जैम
तनहा हूँ मैँ
ट्रैफ़िक जैम
तनहा हूँ मैँ
(2)
রাত নিঃঝুম
ঘুম ভেঙ্গে যায়
দুঃস্বপ্ন...
পাশ ফিরে শুই
Dead of night
Startled out of dreams
I change sides
बीच रात
दु :स्वप्न से जाग
करवटें बदलूँ
बीच रात
दु :स्वप्न से जाग
करवटें बदलूँ
(3)
পুরোনো চাদর
ছেঁড়া কোনটা
রিফু করে নিই
Old bed sheet
Tattered and torn
Mended to perfection
फटी चादर
किससे कहूँ
"रफ़ू कर दे "
(4)
फटी चादर
किससे कहूँ
"रफ़ू कर दे "
(4)
অজানা শহর
ত্র্যস্ত পায়ে
ঠিকানা খুঁজি
Untamed path
Staggering steps
Stranger in the city
अजनबी शहर
सहमे कदम
रस्ते-रस्ते ढूंढे पता
सहमे कदम
रस्ते-रस्ते ढूंढे पता
(5)
বন্ধ দরজা
সভয়ে নাড়ী কড়া
কার মুখ দেখব?
Trembling hand
Knocks the door
Destination unknown
काँपते हाथ खड़काएँ किवाड़
बंद दरवाज़ा
किस आँगन खुले
(6)
काँपते हाथ खड़काएँ किवाड़
बंद दरवाज़ा
किस आँगन खुले
(6)
সাত সমুদ্র
পেরিয়ে দেখি, একি ?
পাস্পোর্ট বাতিল
Seven seas
Deep in my pocket
An expired passport
सात समुन्दर
जेब के अंदर
एक रद्द पासपोर्ट
सात समुन्दर
जेब के अंदर
एक रद्द पासपोर्ट
(7)
ঘোমটার ফাঁকে
স্বপ্ন সে আঁকে
টেনে খুলে দিই
Beyond the veil
Dreams reside
Wrench open
सपनों का स्रोत
घूँघट की ओट
खोल दूँ
(8)
सपनों का स्रोत
घूँघट की ओट
खोल दूँ
(8)
আমি বলি চাল
সে বলে ডাল
অমিলেই মিল
I say “Yes”
He says “No”
We agree to disagree
मैं बोलूँ हाँ
वो बोले ना
अनबन में मेल
मैं बोलूँ हाँ
वो बोले ना
अनबन में मेल
(9)
জীবন যোয়ারে
গা ভাসিয়ে দিই
অসম্ভবের সন্ধানে
Reckless I dive
An inexpert swimmer
Hoping to stay afloat
तैराक नहीं
बीच भँवर, डूब सोचूं,
उस पार जाऊं तर
(10)
तैराक नहीं
बीच भँवर, डूब सोचूं,
उस पार जाऊं तर
(10)
সমান্তরাল পথ
মিশবে কী শেষে
দূর দিগন্তের বুকে?
Parallel roads
I search in vain
The intersection
समन्तराल पथ
मैं खोजूँ व्यर्थ
एक मुश्त चौराहा
मैं खोजूँ व्यर्थ
एक मुश्त चौराहा
invaluable guidance towards perfecting the Hindi verses
Saturday, 11 July 2015
आस्मां
आज शाम से बस उदास है आस्मां
बादलों के सतह पर डूबता आस्मां
बूंदों के नश्तर से चुभता आस्मां
धरती के पनाह से ऊबता सा आस्मां
पक्षियों के चहचहाने से मुँह फेरता आस्मां
चाँद तारों से बहाने बनाता आस्मां
वह कहाँ जो हमें था रिझाता आस्मां ?
सूर्य-किरणों में निखर इठलाता आस्मां
कैसे मनाएं हम के है रूठता आस्मां
पत्तों के झरोखों से झांकता आस्मां
आज है बेपरवाह, बेबाक, बेसाख्ता आस्मां
कागज़ों के नाओं का पतवार सा आस्मां
नुक्कड़ पे जमे पानियों में खुद को निहारता आस्मां
उड़ते आज़ाद पतंगों से भिड़ उलझता आस्मां
धुएं के कालिख में खो पथ ढूंढता आस्मां
सरहदों में बट अपनों को पुकारता आस्मां
नापाक इरादों से शर्मिंदा सुलगता आस्मां
मैं मुट्ठी में बंद कर लूं यह है मेरा आस्मां
तुम पलकों में बसालो जो है तुम्हारा आस्मां
आस्मां फिर कहे के कहाँ है मेरा आस्मां ?
हम कहें वाह ! क्या तेरा ? यह सब है हमारा आस्मां
बादलों के सतह पर डूबता आस्मां
बूंदों के नश्तर से चुभता आस्मां
धरती के पनाह से ऊबता सा आस्मां
पक्षियों के चहचहाने से मुँह फेरता आस्मां
चाँद तारों से बहाने बनाता आस्मां
वह कहाँ जो हमें था रिझाता आस्मां ?
सूर्य-किरणों में निखर इठलाता आस्मां
कैसे मनाएं हम के है रूठता आस्मां
पत्तों के झरोखों से झांकता आस्मां
आज है बेपरवाह, बेबाक, बेसाख्ता आस्मां
कागज़ों के नाओं का पतवार सा आस्मां
नुक्कड़ पे जमे पानियों में खुद को निहारता आस्मां
उड़ते आज़ाद पतंगों से भिड़ उलझता आस्मां
धुएं के कालिख में खो पथ ढूंढता आस्मां
सरहदों में बट अपनों को पुकारता आस्मां
नापाक इरादों से शर्मिंदा सुलगता आस्मां
मैं मुट्ठी में बंद कर लूं यह है मेरा आस्मां
तुम पलकों में बसालो जो है तुम्हारा आस्मां
आस्मां फिर कहे के कहाँ है मेरा आस्मां ?
हम कहें वाह ! क्या तेरा ? यह सब है हमारा आस्मां
Pic from science,nationalgeographic.com |
Friday, 3 July 2015
Love Life Longing
Image : janheine.wordpress.com |
I don't agree with those who say
That I have lost my way
A road unknown perhaps
A bend unexpected somewhat
A landmark challenging indeed
And a milestone in the making
Perhaps
But never, ever do I believe when they say
That I have taken a path astray
***
You are love, joy, catharsis
At times
You are pain, agony, fear
Indecisive
I am whether to shun you
Or
Embrace you deep
Life
Serendipitous seldom
Formidable often
Yet....
***
The night deepens
And the silences
Within and without
I am
Still
In the vortex of a storm
In quest
Of calm
Unruffled
Inhale deep
The fragrance of Being
Monday, 22 June 2015
कांच के किरचे और कुछ पंक्तिया
अरसा हुआ गुलज़ार साहब के नज़्मों के झुरमूठ तले जिए। हाल ही में कुछ कांच के किरचें आँखों में चुभे और ख्वाब का एक तानाबाना बुनता गया ।
शीशे के थे सपने ये बात तो तय है
किरचें रात भर आँखों में चुभा करतीं हैं
सपनों में ऐसे ही कई बार "पाओं पढ़ गया था " और रात भर कसमसाकर खुद से खुद की बातें की थी । 'गुलज़ार' की खुशबू रूह में बस गयी है। याद आ रहा है "वह दास्तान जो हमने कही भी हमने लिखी भी आज वह खुद से सुनी है"। मंज़र कुछ ऐसा ही हुआ जब अमित जी की कविताओं में खुद को पाया। कुछ पंक्तियाँ दिल को टटोल गयी इस तरह की निस्तब्ध, निर्वाक मैं खामोशियों को पढ़ती रही.... वह खामोशी "जो सुनती है कहा करती है"…कवि की मनोवेदना होती ही ऎसी है, जो कहते हुए भी कुछ नहीं कहती और छानो तो शब्दों के बीच जो अनकही है वे सब भेद खोल देती है। सुदर्शन फ़ाक़िर साहब ने क्या खूब कही है कि "मेरी आवाज़ ही पर्दा है मेरे चेहरे का , मैं हूँ खामोश जहां मुझको वहाँ से सुनिए"।
अमित जी कहते हैं.....
बोनसाई हूँ मैं
समय मेरा दक्ष माली
बढ़ने नहीं देता , जीने नहीं देता,
मरने भी नहीं देता ....
…खूबसूरत हूँ बेशक
और शायद कीमती भी
लेकिन यह असली मैं नहीं हूँ
और शायद इसी खोज में हम सब तल्लीन है - क्या यह देह की ऊपरी नक्काशी अधिक मनमोहक है या वह आत्मा की पाकीज़गी जो आकांक्षाओं के जमघट में धुंधली पढ़ गयी है....
और इक पन्ने पर सियाही समय की ठहरी हुइ…
शुक्र है कि
साथ नहीं हो…
ज़िंदा तो हूँ
जुस्तजू
और इंतज़ार में
मर ही न जाता
ख़ुशी से
जो मिल गए होते
ग़म में भी लुत्फ़ है जनाब…ग़ालिब ने अमर किया है इन्ही जज़्बों को अपने बयान में …"यह न थी हमारी क़िस्मत के विसाले यार होता अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता ... तेरे वादे पर जीयें हम तो यह जान झूठ जाना के ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता "
ताऊम्र इंतज़ार, ताऊम्र उदासी, ताऊम्र रंजिश, ताउम्र निराशा…ये कुछ पोशीदा मसाले है जो कविताओं को रूहानी व लज़ीज़ बनाती है व कवियों को धुरंधर शेफ जिन्होने ज़िंदगी का चटखारा ऐसे लिया हो कि परोसनेवाला सोचता रह जाए कि दावत कहीं कम न पड़ गया हो.…
मंदिरों के घंटे
अज़ान की आवाज़
गुरूद्वारे का प्रसाद
कितने खुशनसीब हो तुम
नैनीताल
खूबसूरती के अलावा भी
कितना कुछ है
तुम्हारे पास
इंसानी रिहाईश ईंट, पत्थर, गारा, फूल, पत्ते, बाग, बगीचों के पाबन्द नहीं, सन्नाटा वीरान की शोर है चहचहाती है स्तब्ध होकर भी.……।
पर कवि प्रेमी है पुजारी भी; वह फूल चुनता है सजाता भी है; और गुंथे हुए फूलों के हार में काँटों को भी सवांरता है.……………………
कुछ ऐसा ही है अमित अग्रवाल जी की पहली कविताओं की आलीशान पेश्कश…"चिटकते कांचघर" जो नाज़ुक ख्वाबों को संजों कर आंसुओं में बिछा देती है शब्दों के कालीन पर और पढ़नेवाले को सावधान करती है "ओह! ज़रा देख कर पाओ रखें, मेरे महबूब, कहीं मसले नहीं, न कहीं मैले हो जाए.… यह मेरा दिल है दस्तरखान नहीं ।
Sunday, 14 June 2015
Devil In My Dreams
Last night I saw the devil in my dreams. And I am sure this has never happened before. He was smiling and winking at me which fascinated me for a while. But not so much as to be tempted to follow him to hell blind folded.... a thought so treacherous.... an act so vile! How could I ever, for a second, think of such a thing. I am aghast, appalled at my own self. Help! If anyone would...
Coming back to the dream....or nightmare. Let me share the strangeness of it all. He had hues of green abundant on him. Why green I wonder. Perhaps, I associate the colour with that of venom. His body was well carved like that of some Greek God. Had he worn a peacock's plume in his crown I might have attributed to him the Divine. But he only had a tussled mop of blackish brown....rich, thick, intentionally careless!
His attire was what I have often seen on celluloid and fables.....flowing texture in traditional pleats and ornaments to go with it! He had a casual stance reclining on clouds or in vacuum....does that make any difference?
His lips were full....cherry pink like that of a pouting girl. His eyes were deeply kohled and large. And yes, of course, he never did have horns!
Yet, I worry that nothing is going to be the same again. I fear there is something lurking at the next bend. Something dark, vicious, potent, foreboding. I look for trouble and tremble at heart. My soul shivers but I put up a brave smile. Weak kneed, apprehensive, scared you can say, vulnerable would describe me in every possible way.
I gaze deep into your eyes and wonder what's going on in your mind and without my knowing a frown settles down between my brows...
I ask my friend what does it mean? He assures me, "Even evil forces have a role to play in God's scheme of things.." I accept at once his explanation. And why not? He is so knowledgeable about these things and me so naïve!
How do I empower myself ? How to combat the storm? What should be my arms? What do I use as a weapon? How deadly these should be to lend defense to my hearth...my poor dwelling... I know something is for sure going to go wrong and nothing is going to go right from now on...
The other night I sat still deep in prayer. An inner voice crooned soft..."Surrender! Surrender!Surrender! Oh dear...." Is it me or someone else there? Standing right next to me a detached spectator...she called out in a while, "Are you sure you saw him and not your own mirrored image?" I do not have a twin, I cry. She laughs in glee sheer. "Look deep within and tell me once more ....aren't there the two of you... the Angel and the Satan? Where I ask, I know not. She taps me with a long wand and whispers,"See within just there..."
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Who is the devil
Saturday, 23 May 2015
वह जो लड़की
तीसरे माले पे वह जो लड़की
गुनगुनाती सी बैलकनि में
आ खड़ी होती है
और मैं एक टक निहारता हुआ
सदियाँ बीत जाती है
और मैं सदियों से हारता हुआ ....
The girl on the third floor balcony
Humming a tune in the air
In silence deep I stand and stare
As time ticks on relentlessly
I fail to count time
Ensnared.......
Inspired by this song :
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सदियाँ
Saturday, 7 February 2015
Fate
Shadows cross from one constellation to another
Dark, foreboding, stark, encompassing
Leaving traces of opaqueness on my mind
Shaken, I forage for an anchor
With flailing hands and feeble heart
He smiles innocently and shrugs
"Grahon ka sab pher hai, bhai"
I wonder at his menacing words
Probing the rationale behind
Finding none, I kneel deep in prayer
What else can an anguished soul do ?
Broods he, but to give in to the Inevitable
I resent his fatalism and my incompetence
To mould the lines on my palm etched deep brown
Towards a destiny premeditated
And nurtured in silken dreams
"केतु की दशा में अक्सर ऐसा होता है बहन जी "
उसकी आँखों में झाँका तो मासूमीयत बेदाग़ छलकी
"अशरिरी साया है विचरता, सूर्य मंडल को टटोलता
आपकी ज़हन को बहन और आत्मा को भी मसलता
शनि पर आप जल चढ़ाओ, मेरी मानो तो अब कहीं न जाओ
तीन महीने की बात है बस शांत रहो और मन लगाओ "
एक टक सुनती रही मैं ,और सपने जो बुनती रही मैं
उनका क्या हशर होगा , पंडित जी अब कुछ तो बताओ
"भाग्य के आगे बहिन जी, किसीकी न चली न चलेगी
आप केवल दाना डालो, पक्षियों को खाना डालो
सेवा में बड़ी शक्ति है, और इस शक्ति में ही अजब भक्ति है "
सांस रोके हैरान थी , सच कहूँ तो परेशान थी
हाथ मलते कब न जाने, लकीरें वे सब न जाने
धुल से गए मिट से गये , बिछुड़ से गए मुड़ से गए
आज अचानक पता चला ग्रहों का है बोलबाला
वे अपने चालें चलें हैं, और विव्हल हम खड़े हैं
असहनीय आघात है, बिन बादल वज्राघात है
चाहा क्या और क्या हुआ, सोचा तो निकला साया !
हमें नहीं दुःख दु;खों का, कब थी हमें आस सुखों का
पर पुरूषार्थ पे बड़ा यकीं था, जो चरितार्थ हो रहा नहीं था
विधि का विधान खंडित कर दूँ, विधाता को अचंबित कर दूँ
ठेस लगी उस विश्वास को है, अदमित जो कल था हताश वो है
अनदेखी किसी छाया से डरता, सबल इंसान आज बिलखता
राहू शनि केतु और मंगल, चक्रव्यूहों का इस जंगल
से निकालता न दिखता प्राणी असहाय यूँ भटकता
पूर्व जन्मों के कर्मों को कोसे, अब न रहा वह अपने भरोसे
विवश है निढाल है, यह भी तो बन्दे मोह माया जाल है
किसने देखा भूमण्डल में विचर किस ग्रह की क्या चाल है?
पर कुएं के मेंढक क्या जाने विश्व का क्या विस्तार है !!
प्रकोप शनि का, कवल केतु का, फिर राहू का ग्रास है
स्वयं से परास्त मानव, भयभीत जीवन अविराम त्रास है
Dark, foreboding, stark, encompassing
Leaving traces of opaqueness on my mind
Shaken, I forage for an anchor
With flailing hands and feeble heart
He smiles innocently and shrugs
"Grahon ka sab pher hai, bhai"
I wonder at his menacing words
Probing the rationale behind
Finding none, I kneel deep in prayer
What else can an anguished soul do ?
Broods he, but to give in to the Inevitable
I resent his fatalism and my incompetence
To mould the lines on my palm etched deep brown
Towards a destiny premeditated
And nurtured in silken dreams
"केतु की दशा में अक्सर ऐसा होता है बहन जी "
उसकी आँखों में झाँका तो मासूमीयत बेदाग़ छलकी
"अशरिरी साया है विचरता, सूर्य मंडल को टटोलता
आपकी ज़हन को बहन और आत्मा को भी मसलता
शनि पर आप जल चढ़ाओ, मेरी मानो तो अब कहीं न जाओ
तीन महीने की बात है बस शांत रहो और मन लगाओ "
एक टक सुनती रही मैं ,और सपने जो बुनती रही मैं
उनका क्या हशर होगा , पंडित जी अब कुछ तो बताओ
"भाग्य के आगे बहिन जी, किसीकी न चली न चलेगी
आप केवल दाना डालो, पक्षियों को खाना डालो
सेवा में बड़ी शक्ति है, और इस शक्ति में ही अजब भक्ति है "
सांस रोके हैरान थी , सच कहूँ तो परेशान थी
हाथ मलते कब न जाने, लकीरें वे सब न जाने
धुल से गए मिट से गये , बिछुड़ से गए मुड़ से गए
आज अचानक पता चला ग्रहों का है बोलबाला
वे अपने चालें चलें हैं, और विव्हल हम खड़े हैं
असहनीय आघात है, बिन बादल वज्राघात है
चाहा क्या और क्या हुआ, सोचा तो निकला साया !
हमें नहीं दुःख दु;खों का, कब थी हमें आस सुखों का
पर पुरूषार्थ पे बड़ा यकीं था, जो चरितार्थ हो रहा नहीं था
विधि का विधान खंडित कर दूँ, विधाता को अचंबित कर दूँ
ठेस लगी उस विश्वास को है, अदमित जो कल था हताश वो है
अनदेखी किसी छाया से डरता, सबल इंसान आज बिलखता
राहू शनि केतु और मंगल, चक्रव्यूहों का इस जंगल
से निकालता न दिखता प्राणी असहाय यूँ भटकता
पूर्व जन्मों के कर्मों को कोसे, अब न रहा वह अपने भरोसे
विवश है निढाल है, यह भी तो बन्दे मोह माया जाल है
किसने देखा भूमण्डल में विचर किस ग्रह की क्या चाल है?
पर कुएं के मेंढक क्या जाने विश्व का क्या विस्तार है !!
प्रकोप शनि का, कवल केतु का, फिर राहू का ग्रास है
स्वयं से परास्त मानव, भयभीत जीवन अविराम त्रास है
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