Tuesday, 15 July 2014

शुरुआत - एक छोटी सी कहानी





मुझे लगता है हमारी शुरुआत ही ग़लत थी। जिस रोज़ अमन ने  मेरी ज़िन्दगी में  कदम रखा वह पल मेरे लिए नागवार था । वह मुझे हर तरह से नापसंद था। और मेरा मानना है कि जब पहली नज़र में ही कोई चीज़ खटकने लगे तो उसे सरासर अस्वीकार कर देना चहिये। अपनी ज़िन्दगी से कोसों दूर कर देना चाहिये।  पर मैंने ऐसा नहीं किया । क्यों ? कारण  बताना शायद मेरे लिए अभी  मुनासिब न होगा । कभी कभी किसी बात की तह तक जाना असंभव या यूँ कहिये कि मुश्किल व तकलीफदेह हो जाती है । एक सवाल के साथ साथ सौ सवाल और खड़े हो जाते हैं और विवशता यह हो जाती है के सवालों के जवाब ढूंढते ढूंढते हम खुद एक सवाल बन के रह जाते हैं ।  मुझे मालूम नहीं इस तरह के ख्याल जो मेरे ज़हन को बारहा कचोटती है सही है भी या नहीं ; अब देर भी बहुत हो चुकी है इस बात को इसलिए इन मसलों को लेकर परेशान होने का कोई फायदा भी है या नहीं ;  या फिर आपही बताएं के इस तरह के सोच को दिमाग में पनपने देना खुद को बेवजह अपार  कष्ट देने जैसा नहीं है  क्या ? और फिर इन्हीं कष्टदायक फ़िक्रों पर कोई नतीजा कायम करना अनुचित तो नहीं ?


बहरहाल यह सच है कि  हम दोनों की तरबीयत  या मिजाज़ मेल नहीं खाते थे । हम दोनों एक  दुसरे से बहुत ज़्यादा उम्मीद रखते थे, बहुत ज़्यादा लड़ते झगड़ते थे और उस लड़ने झगड़ने के तुरंत बाद एक लंबा अर्सा  एक दुसरे को मनाने में बिताते थे । पर यह भी सच है की हर उस लड़ाई के बाद हमारा रिश्ता और गहरा और मज़बूत बनता गया । यह एक अजीब पहेली थी जो आज तक मुझसे नहीं सुलझ पाई है । पर यह प्रक्रिया कठिन और मायूस कर देने वाली भी थी । और हर बार जब कभी हम इस दौर  से गुज़रते तो मैं मन ही मन यह ज़रूर सोचती "अब बस और नहीं"।


फिर एक दिन मेरी ज़िन्दगी में हर्ष आया। हर्ष जो बसंत ऋतू की  फुरफुराती हवाओं जैसा था । खुशमिजाज़, सहज स्वभाव , मिलनसार, खुले   दिल का  व गहरी सोच रखने वाला इंसान जिससे मेरी पहली मुलाक़ात में ही अच्छी खासी  दोस्ती हो गयी। यह दोस्ती कब प्यार में बदली पता न चला। हमें एक दूसरे को समझने के लिए बिला  वजह तक़रार का सहारा नहीं लेना पड़ता ।   वह बोलता और मैं सुनती - इसी तरह घंटों गुज़र जाते और हमें पता तक नहीं चलता ।   हमारी हर सावधानी के बावजूद हमारा रिश्ता तेज़ी से उस दिशा  की तरफ बढ़ रहा था  जो मुसलसल हर ऐसे रिश्ते  का अंजाम होता है।   पर एक दिन अचानक हर्ष चला गया  ठीक उन  बसंती झोंकों की भांति जो तन मन को सुकून तो पहुंचाते हैं पर जिनके  पैरों में बेड़ी  डाल  आप रोक नहीं सकते ।
जाने से पूर्व  उसने न रुकने  के  कई  कारण  दर्शाये थे जो उस वक़्त सही लगे थे पर अब पीछे मुड़के देखती हूँ तो हंसी आती है। शब्दकोष  खोलकर बहाना शब्द का पर्यायवाची अर्थ ढूंढती हूँ ।


इस दौरान अमन मेरि  तरफ बड़ी संजीदगी से पेश आये । उसने मुझे न कोसा , न डांटा , न पूछा, न समझाया।  वह सिर्फ मेरे साथ रहा उस पालतु  जनावर की तरह जिसे अनायास ही पता हो जाता है कि  कुछ ठीक नहीं हैं और  मालकिन के साथ वफादारी दिखानी होती है ।  और हमारा रिश्ता कुछ बोले बग़ैर ही और गहरा और संजीदा होने लगा। पर नहीं इसका मतलब  वह नहीं  है जो आप समझ रहे हो ।


उसके बाद वह हुआ जिसकी मुझे दूरंदेश  भी नहीं था ।  यानी मेरी शादी हो  गयी । किससे ?  एक और अजनबी से । और शादी शादी होती है - एक न ख़त्म होने वाली समझौतों और एक दुसरे को व एक दुसरे के परिवारों के अपेक्षाओं को समझने का और  उन पर खरे उतरने का सिलसिला । और वह जो सिलसिला चला तो  चलता ही चला गया । क्या मैं खुश हूँ? अब आप पूछते हैं तो मेरा उत्तर हाँ ही होगा ।  पर फिर यकायक किसी महकती सुबह या  कभी भरी दोपहरी की तन्हाई  में या साँझ ढलते या रातों के सियाही तले  जब नींद आँख मिचोली खेल जाती है तो ज़हन में कई प्रश्न आते  हैं - अब इस वक़्त हर्ष  संग होते तो कैसा होता या फिर गर अमन के साथ ज़िन्दगी इससे अलग  होती क्या ?


मैं शादीशुदा हूँ । मेरे पति मेरे बेइन्तहाई वफादार है । मैं अपने गृहस्थ  जीवन से उतनी ही खुश हूँ जितनी  इक आम हिंदुस्थानी  पत्नी को  होना चाहिए । पर फिर भी मेरे ज़हन मैं रह रह के इस तरह के ख्यालातों का आना - ग़लत है क्या ?








जिस गीत से इस कहानी की शुरुआत हुई :

https://www.youtube.com/watch?v=UVeDXzv7AQU
     

2 comments:

  1. गीता जी,

    जिस गीत को आधार बनाकर इस कहानी का ताना-बाना बना गया है, वह भी और यह कहानी भी मन की गहराई से उभरने वाली बात है और इसीलिए सुनने वाले या पढ़ने वाले के मन को भीतर तक छू जाती है । भावनाएं सरल होती हैं किन्तु मानव-मन की उथल-पुथल जटिल होती है जिसे समझना सहज नहीं ।

    बहुत ही सुन्दर कहानी लिखी है आपने । बहुत-बहुत साधुवाद आपको ।

    जितेन्द्र माथुर

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  2. प्रोत्साहन के लिए तहेदिल से शुक्रिया

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