Saturday, 26 October 2013

Hell & Heaven



I thought it was symbiotic
A relation germinating from mutuality
One requiring the other
For the purpose of subsistence

But it was not...

Soon we were embroiled in something so indescribable
It seemed as though we were in a brothel of emotional haggling
Where we sold our turbulent tenacities
In a bid to overpower each other

We clawed with sharpened nails
And axed our harmony with bloody paws
So that the other could not hurl another accusation
Or explode splinters of fury
On each other’s face


We had reverted to the basics
To the raw attempts at asserting ourselves
By hurting the other as much as we could

Strange! How it all began
Merely an Act of  bare needs
Messed  up
Now starting all over again
Is simply impossible

How do we mend it
Remains the only thought
If only one would understand the other
It could be so much better
Its not to be ....never

Yet....

Should it be tried one more time?
Please, if not forever...


कईबार सोचा है इस रिश्ते को क्या नाम दे

एक ज़रुरत ?

एक निबाह?

एक अनचाहा इंतज़ाम ?

या एक मुसीबत ?

जवाब मुमकिन के  सतह तक आकर थम गयी है
शायद सच न उगल दे कहीं
इस बदतमीज़ ज़हन की आदतें, उफ़ तौबा !

फिर सोचा  है कि  इसे एक नया मोड़ क्यूँ न दें ?
चले एक और  सिरा  पकड ताकी
भावनाओं के इन पेचीदे फसादों से बच जाएँ

पर सोच ईरादों में और इरादें मकसद
में तब्दील होने तलक मीलों के फासले रह जाते हैं
हरबार यूँ ही ….

और दुरी घटने तक कोई और रुख ले लेती है
यह अनकही दास्तान
इस क़दर कि 
पीछे मुड कर देखना भी मुनासिब नहीं होता
और कमजोरियां नाजायज़ फायदा उठाती है
अब लौटे तो कैसे भला ?
सुबह को चीर कर शाम निकल ही आती है
हमेशा। ….

क्या  यूँ ही चलते रहेंगे हम
दो अलग अलग क़दमों के आहटो को सुनते
या फिर कोई दरवाजा खुलेगा
और इक नई  दिशा

सूरज की अंतिम रौशनी से प्रथम लालिमा तक
आशा और निराशा डोलती रहती है यूँही
और मैं आकाश में एक झुण्ड से बिछड़ी
परिंदे की भाँती  पर फ़ड्फ़डाती
हवाओं से मिन्नतें करती हुई
एक आसमान नई सी तलाशती

सुनो तुम

चलो फिर से उडे आज़ाद रंगों में
असंभव संभव से परे
आओ ना…। 

उम्मीदें बन्ध जाती है
फिर अचानक यूँही
कहीं कुछ टूटने की
धुन सुनी है क्या ?

वोह मैं ही हूँ
जूझती
उलझती
ज़ख्मों को कुरेदती
वोह मैं ही हूँ गुमसुम

सुनो तुम
क्या इन  खामोश तदबीरों को
समझने के काबिल हो तुम?
सुनो तुम…