Friday 18 September 2015

बेक़रार

कवियों ने "रात" शब्द को अपने कविताओं में नाना प्रकार से व्यवहार में लाये हैं | सोचिये तो इस शब्द में ऎसी क्या कशिश है कि  कवियों के मन को लुभा जाती है ? हालांकि रात शब्द अनेकों नकारात्मक  विशेषणों से कलुषित है। रात को ही मनुष्य की अवचेतन (sub-conscious) मन घिनौले व्याधियों को जन्म देती है । रात के अंधेरों में ही जघन्य अपराधों की दुनिया उजागर होती है । रात की आग़ोश में दिल के सोये हुए दर्द जागृत होते है। रात चैन हरती भी है, सुख के सपनें भी दिखाती है, रात कल्पनाओं की तिलिस्मी नजारें जगे आँखों के सामने ला खड़ा करती है तो यह रात ही हमें अपने अधूरेपन का एहसास दिला जाती है । रात विचित्र है, रात रहस्यमयी है, रात स्वप्निली है, रात अनोखी है। रात  ऐसा समा बांधती है कि  हमारे अंतर्मन की गहरे अनुभूतियों से हमारे चेतन मन का परिचय होता है। भूले भटके यादें इसी रात को ही हमारे ज़हन का दरवाज़ा खटखटाते है। और अनायास ही कवि कह उठता है कि "रात भर सर्द हवा चलती रही, रात भर हमने अलाव तापा … रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने "  

कवि ने रात के कई रूप दिखाए  ……………… "रात दुल्हन जैसी", "रात भिखारन", "रात नशीली सी", " रात बंजारन", "प्यासी रात", " बासी रात", "तड़पती रात", "बरसती रात " , "गूँगी रात ", "बोलती  रात", "बेवा रात", "जलती रात " "खुश्क रात", "गीली  रात", "शर्मीली रात" "हठीली रात" ……… अनगिनत विश्लेषण , अनेकों उदाहरण ..............

पर मैं कहती हूँ  

पूनम नहीं 
अमावस भी नहीं 
रात रात है 

लौ सी है जली 
फिर बर्फ सी गली 
कायनात है 



Monday 14 September 2015

क़त्ल - आदत या मजबूरी

आजकल हिंदी भाषा से मैं बहुत ज़्यादा प्रभावित हूँ। हाल  ही में मैंने हिंदी की दो बोलकुल भिन्नधारा की किताबें पढ़ी । मज़ा आया । "क़त्ल की आदत" जो कि मेरे बहुत ही प्रिय मित्र, श्री जीतेन्द्र माथुर, द्वारा लिखी पहली किताब है, श्यामगढ़ नामक एक काल्पनिक स्थान के पृष्ठभूमी पर पांच हत्याकांडों की तफ्तीश करते हुए एक ईमानदार पुलिस ऑफिसर  की कहानी है।  और दूसरी किताब "सफर के छाले हैं " हिंदी साहित्य जगत की माननीया, विदूषी कवियत्री  डा: सुधा गुप्ता की अतुलनीय हाइबन व हाइकू के मनोग्राही संग्रह है। दोनों ही किताबें मेरे दिल को भिन्न-भिन्न प्रकार से छू गईं  हालांकि दोनों किताबें एक दूसरे से मेल नहीं खातीं  ओर  एक दूसरे की परिपूरक भी नहीं है।

एक ही पोस्ट में दोनों किताबों के बारे में लिखें तो जगह कम पढ़ जायेगी व न्यायोचित भी नहीं होगा; इसलिए केवल माथुर साहब की लिखी किताब के सदर्भ में ही यहाँ  बात करूंगी। जैसा की मैंने पहले ही कहा है कि  यह  एक रहस्योपन्यास है, अत: इसकी कहानी का रोमांचकारी व उत्तेजक होना स्वाभाविक है । परन्तु यह नॉवल इन सब  संज्ञाओं से परे एक ऐसी कहानी का उपस्थापन करती है जिसमें  हत्या-केन्द्रिक डिटेक्टिव नॉवलों के साधारण मसालों के अतिरिक्त भी जीवन दर्शन, जीवन आदर्श और कार्यक्षेत्र में सफलता-असफलता की ग्लानि-जनित विषाद से उपजे  मनस्तत्व का विशद एवं उल्लेखनीय व्याख्यान है। परन्तु यह व्याख्यान प्रत्यक्ष नहीं अधिकन्तु परोक्ष रूप में हत्याओं के तहकीकात के चलतें विबिन्न व विचित्र घटना-समूहों में कहीं न कहीं अन्तर्निहित हैं जो कि  पाठक-पाठिकाओं को लिखित के बीच जो अलिखित है उसे देखने या पढ़ पाने की क्षमता पर निर्भर है ।  और इसीलिये यह पुस्तक और बाक़ी अपराध कथाओं (क्राइम-नॉवलों) से अलग है ।

संजय सिन्हा, श्यामगढ़ पुलिस चौकी का सब इंस्पेक्टर है, जो अपने काम को बहुत संजीदगी से लेता है।  परन्तु भरसक प्रयास करने के बावजूद भी संजय यह साबित नहीं कर पा रहा है कि  इन बेरहमी से कीए जाने वाले  कत्लों के पीछे किसका हाथ है ?

इसमें संजय की सरकारी काम काज के सीमित रूपरेखा में अपने कर्तव्य-पालन की अक्षमता, उसके अंतर्मन के  द्वन्दों  की  गाथा, उसकी कलुषित अतीत  जो  बार-बार उसीको मुजरिम के कठघरे में ला खड़ा कर देता  है, मानवीय विवशताओं  का सजीव चित्रण है।   क्या संजय किसी रोज़ इन कश्मकशों से उबर  पाएगा ? क्या संजय कामियाबी की राह पे आगे बढ़ जाएगा? क्या उसके हितैषी सच में उसके खैरख्वाह साबित होंगे ? क्या वे कभी अपने आप से आँखें मिलाके खुद ही से जवाबतलबी  कर पायेगा ? इन्ही पेचीदा सवालों के सरल उत्तर क़त्ल की आदत नामक किताब के पन्नों में छुपी है।

क्या आप ये  राज़ जानना चाहेंगे ?

माथुर साहब ने  अत्यंत सरल व सहज  ढंग में कहानी का प्रस्थापन कीया है। सभी पात्रों के चरित्रायण वास्तविकतापूर्ण है । कहानी का प्रवाह पाठक को पुस्तक से जोड़ कर रखता  है ।  कहानी में जैसे रोमांच है वैसे ही सीख भी ।  क़त्ल करना बुरी बात है यह हम सब जानते हैं किन्तु क़त्ल की आदत पढ़ जाना तो समाज एवं स्वयं के लीये भी कितना घातक सिद्ध हो सकता है उसीको दर्शाना इस कहानी का मानो मूल उद्देश्य है।

यह माथुर साहब की सर्व प्रथम सृजन (उपन्यास के रूप में)   है और उनकी कृतियाँ इसी तरह हमारी विवेक व मन को झंझोरते रहे इसी उम्मीद के  साथ माथुर साहब से अनुरोध करती हूँ कि  आपकी कलम कभी न थके और आप हमेशा ऐसे ही लिखते रहें ताकि हमारे मनोरंजन के साथ ही साथ हमारे बौद्धिक व मानविक विकास के भी  द्वार आपके अविराम  लेखन के माध्यम से  प्रशस्त हो ।

माथुर साहब को अशेष धन्यबाद सहित……  


(यह पोस्ट लेखक के अनुरोध पर आधारित बिलकुल नहीं है। यह केवल एक आग्रही पाठिका के उत्साह व आनंद की अभिव्यक्ति है )

Saturday 12 September 2015

निर्बोध

पता नहीं ये  हर पल की कश्मकश कहाँ ले जायेगी ? ये धूप  छाओं की पेचीदगी, परेशान सा आलम। और उनका मुझपर  रहम-ओ-क़रम । ख़ाक में मिल जाने का दिल करता है। बचपन में एक ग़ज़ल सुनते थे रेडियो पर - ग़ैरफ़िल्मी । तब उन अल्फ़ाज़ों के मतलब समझ नहीं आते  थे । अब जब थोड़ी थोड़ी समझने लगी हूँ तो छटपटाती हूँ। बोल कुछ इस प्रकार थे (अब इतने सालों बाद कोई ग़लती कर रही हूँ या नहीं; पर शब्द जो भी हो भावनाएं वही है जो कहना चाहती हूँ )

एहले खिरज तुम भी क्या जानो इनकी भी मजबूरी हैं 
ईश्क़ में कुछ पागल सा होना शायद बहुत ज़रूरी है  


ये खिरज साहब भी तजुर्बेकार शायर मालूम पढ़ते  हैं। कैसे, दीवानगी बोलो या बेचारगी कहो, दिल की उलझनों  को अपने शेर के मायाजाल में आबद्ध कर  लिया हँसते- हँसते।  जीवन इसी उलझन का नाम हैं शायद - पाना न पाना, पाके खो देना, खो के खोने का दू:ख और दू:ख में सुख ढूंढना और इन्हीं  नामुराद कोशिशों  में दिन गुज़ारना ।  यही  माया है -

सन्यासी भटके
दर-ब-दर
पारस मणी की
तलाश कर
जब लगा हाथ, पर
त्याग दिया
जान पत्थर

हमें  रहती है ता-उम्र  जिसकी आस  जब वह हाथ लग जाता है तब  हमें वो गवारा नहीं होता। हम उससे पीछा  छुड़ाने के मौके खोजते हैं और जब वह हाथ से निकल जाता है तो ज़ार-ज़ार उसीकी याद में आंसू बहाते हैं, बिलखते हैं, तड़पते हैं। यही  विडम्बना ही जीवन की मूल व्यथा-सार है। मनुष्य की  निर्बुद्धिता - अपने आप को ही न समझ पाना और तभी अपने आप में ही उलझे रहना ।   

कट्टी थी कल  
मिलने उसे ही मैं 
आज बेकल 

Thursday 10 September 2015

Celebration

Sky afar
Stars glitter
Moon smiles
The night is young
Visions emerge
Dancing waves
Reaches and recedes
Evening song
Croons the breeze
Warming my heart
Melody divine
Destiny adorns
A nebulous haze
Labyrinthine maze
In vain I seek
The path beyond
But will l stall?
Or hesitate?
To surge ahead
In quest forlorn?
Not till my soul
Satiated rests
In bliss sublime
In bond ever strong
Hope is my torch
I lift ablaze
Grit is my arm
Wrapped along
Hold my hand
Despair I lest
Hold me tight
In embrace strong
Stars shall swoon and;
Fall at our feet
Moon shall glow
All day long
We shall then
March in tune
Hug in delight
The horizon beyond
Sun shine then shall
Never elope and
The nights shall
Stay forever young

Saturday 5 September 2015

A Sacred Oath

Words die on quivering lips
As I hold on to a broken wish
A wish to make, a wish to break
Of timeless hold, of ephemeral swish

Words die on quivering lips.....

There's yet more to learn on the path
Of life, how to hurt and how to strife
To get over the pain of prolonged days
Of endless nights of interminable anguish

Words die on quivering lips....

Its an art to survive when you want not to
Its disastrous to die when you ought to
Navigate the waters dangerous to wade
At the other end perhaps joy awaits

Words die on quivering lips....

At the far end of the horizon there appears
Alive a rainbow of colours so bright
I think I can wrench it free from the sky
Squeeze it tight in my palms and make it mine

Words die on quivering lips....

Alas! Roars the thunderous fate
The torrents of pain how to abate
How to reason with demons within
How to let the angels win

Words die on quivering lips......

Free I shall be from shackles strong
Soul's songs are yet to be born
Dirge of pain, the venomous peg
Reign I shall within to check

Shan't let the melody die
Shan't let spring say goodbye
Shan't let hurt on self inflict
Shan't let words die on quivering lips


Thursday 3 September 2015

Song Of Stars




Oh my alien star !!
On your nocturnal sojourn
 I await by my attic
For your twilight lore
Of fables born

As the veil of dusk
Descends, I hide your tale
Within my soul

Oh my sleepless star!!
From faraway heathen land
I fear not to intersect
Your trajectory night long

The distant sky beckons
With an ethereal kiss of
Light, I'd rather travel without
The ugly remnants of my life

Oh my poor, humble star!!
Listen to my plea
In your hurried flight of fancy
You may somewhere miss me

Dusty is my abode
Unblemished are your feet
I revere your ascent
But fail to reach thee

A favour I ask of you
When the time comes to flee
As I close in my lashes
You be what no one has ever been


(Inspired by the song "Bhindeshi Tara" from the Bengali movie "Antaheen", a classic in its own right)

Tuesday 1 September 2015

Footprints

I had walked up the miles
By the shores of a roaring sea
On a wistful dawn
And footprints were etched
On the carpet of sands
Earthy sketches on a canvas of gold


Years later ....
I went up to the beach
On a dazzling morn
And looked hither & thither
Footprints were none
Swept away by the unruly tides
Left were a few broken conches
Marooned sea shells & dirty corals
But no! the footprints were gone


***


You brought spring
In  greying autumn
You brought a smile
To parched lips
You brought sunshine
On melancholy days
You brought peace
To a frenzied world
You brought solace
To thudding heart
You brought dreams
To sleepless nights
You brought songs
To deafened ears
You gave life
To deadened soul


But now you are gone
And left behind
Is an empty shell
A few tear drops
And a night
Mourning in quietude
Of muted music
Of yore