Thursday 8 January 2015

ज़िन्दगी से हटके

धुंधले से साये हैं इर्द गिर्द भटकते
और कुछ  किताबों के फटे पन्ने
एक कहानी लिखी थी कभी मैंने
जो ज़िन्दगी से मुखातिब थी
पर फिर भी मुसलसल अलग
सियाही  की जगह खून था दिल के मेरे
और रंग आसमानों की सी थी
शायद चुराई हुई
फीके पड़  गए  जैसे ही धोया मैंने
अश्कों से बारहा तंग आकर


अब कोरे से काग़ज़ पर फिर सींचती हूँ
इक नज़्म, जो साज़ो-आवाज़ से जुदा है
सिसकियों सी सुनाई पड़ती है
तन्हाई के शोरोगुल में


यह इक अजीब दास्ताँ है जनाब
कहते हैं पढ़नेवाले
लिखने वाले ने दिल खोल के रख
दिया हो जैंसे सामने सबके
पर फिर भी आईने में अक्स
नज़र नहीं आता
मानो काग़ज़ के पन्नो में
कहीं बस गया है जाकर


इक कहानी लिखी थी मैंने कभी
जो ज़िन्दगी से मुख्तलिफ थी
पर फिर भी न जाने क्यों लगता है
बहुत जानी पहचानी सी किसी मरहूम की
आप बीती हो मालुम