Wednesday, 8 February 2017

खुली खिड़की

खिड़की खोलते ही
इक मुट्ठी  आसमां  का झलक
जिसका नीलापन कुछ फीका सा पढ़ गया है
सुफ़ैद  रुई से कुछ बादल
ठहरते नहीं.... बह जाने की ताकीद में
दूर दूर तक नज़र न आते
ऐसे एक-दो पंख फड़फड़ाते हुए पंछी
मीलो-मील उड़ान भरने की कोशिश में
एक टहनी  हरा दुपट्टा ओढ़े
सुनहरे चूड़ियों के गोलाइयाँ  खानकातीं
आँखें चौन्धियाते हुए रोशनी के  झुरमुठ
उस पे झोंका एक परदेसी सा अजनबी दहलीज़ों के खुशबू लिए
और एक बचपन खोया सा

कभी कभी सोचती हूँ
क्या सबकी खिंड़कीयाँ खुलते हैं
आसमान के सतह पर?
वह सब्ज़ीवाला जो चढ़ती धुप में
आवाज़ें लगाता है दरवाज़े पर
"सब्ज़ी  लेलो........ !"
वह पागल जो ट्रैफिक सिग्नल पर
सर खुजाता है और ज़ोर-ज़ोर से हँसता है
अपने ही अनकही चुटकुलों पर
और नहीं तो वह रिक्शावाला
जो देखते ही नमस्ते करता है
कोई बता रहा था हाल ही में
उसने अपनी  बहन की शादी कराई है
मार्किट से चौड़े ब्याज पे  क़र्ज़ें  लेकर

क्या इनके भी खिड़कियाँ खुलते है
आसमान के सतह पर ?
या इक झलक आसमान की
तलाश में कट जाती है पूरी ज़िन्दगी ?
सूखे सपनों को पसीनों में  फिसल जाते देख
अरे ! इनके बंजर घरों में खिड़कियाँ हैं भी या नहीं ?
या बसर करते होंगे ईंट पत्थरों के ढेर पर
और राख होते देखते होंगे सुलगते रोटियों को
पूछिये तो इनसे खिड़कियाँ देखी  है कभी?
जिसके साये में हम बैठ लिखते है
सच्ची-झूठी मनगढंत कहानियाँ...... ?

पता नहीं

शायद ......

उनकी खिड़कियाँ ??????????????????????