Monday 22 June 2015

कांच के किरचे और कुछ पंक्तिया







अरसा हुआ गुलज़ार साहब के  नज़्मों के झुरमूठ तले जिए। हाल ही में  कुछ कांच के किरचें आँखों में  चुभे और  ख्वाब का एक तानाबाना बुनता  गया ।



शीशे के थे सपने ये बात तो तय है
किरचें रात भर आँखों में चुभा करतीं हैं



सपनों में ऐसे ही कई बार "पाओं पढ़ गया था " और रात भर कसमसाकर खुद से खुद की बातें की थी । 'गुलज़ार' की खुशबू रूह में बस गयी है। याद आ रहा है "वह दास्तान जो हमने कही भी हमने लिखी भी  आज वह खुद से सुनी है"।  मंज़र कुछ ऐसा ही हुआ जब अमित जी की कविताओं में खुद को पाया।  कुछ पंक्तियाँ दिल को  टटोल गयी इस तरह की  निस्तब्ध, निर्वाक मैं खामोशियों को पढ़ती रही.... वह खामोशी "जो सुनती है कहा करती है"…कवि की मनोवेदना  होती ही ऎसी है, जो कहते हुए भी कुछ नहीं कहती और छानो तो शब्दों के बीच जो अनकही है वे  सब भेद खोल देती है। सुदर्शन फ़ाक़िर साहब ने क्या खूब कही है कि  "मेरी आवाज़ ही पर्दा है मेरे चेहरे का , मैं हूँ खामोश जहां मुझको वहाँ  से सुनिए"।



अमित जी कहते हैं.....



बोनसाई हूँ मैं
समय मेरा दक्ष माली
बढ़ने नहीं देता , जीने नहीं देता,
मरने भी नहीं देता ....



…खूबसूरत हूँ बेशक
और शायद कीमती भी
लेकिन यह असली मैं नहीं हूँ



और शायद इसी खोज में हम सब तल्लीन है - क्या यह देह की ऊपरी नक्काशी अधिक मनमोहक है या वह आत्मा की पाकीज़गी जो आकांक्षाओं के जमघट में धुंधली पढ़ गयी है....



और इक पन्ने  पर सियाही समय की ठहरी हुइ…



शुक्र है कि
साथ नहीं हो…
ज़िंदा तो हूँ
जुस्तजू
और इंतज़ार में
मर ही न जाता     
ख़ुशी से
जो मिल गए होते



ग़म में भी लुत्फ़ है जनाब…ग़ालिब ने अमर किया है इन्ही जज़्बों को अपने बयान में …"यह न थी हमारी क़िस्मत के विसाले यार होता अगर और जीते रहते यही  इंतज़ार होता ... तेरे वादे पर जीयें हम तो यह जान झूठ जाना के ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता "



ताऊम्र इंतज़ार, ताऊम्र उदासी, ताऊम्र रंजिश, ताउम्र निराशा…ये कुछ पोशीदा मसाले है जो  कविताओं को रूहानी व लज़ीज़ बनाती है व कवियों को धुरंधर शेफ जिन्होने  ज़िंदगी का चटखारा ऐसे लिया हो कि  परोसनेवाला सोचता रह जाए कि  दावत कहीं कम न पड़  गया हो.…



मंदिरों के घंटे
अज़ान की आवाज़
गुरूद्वारे का प्रसाद
कितने खुशनसीब हो तुम
नैनीताल
खूबसूरती के अलावा भी
 कितना कुछ है
तुम्हारे पास



इंसानी रिहाईश ईंट, पत्थर, गारा, फूल, पत्ते, बाग, बगीचों के पाबन्द नहीं, सन्नाटा वीरान की शोर है चहचहाती है स्तब्ध होकर भी.……।



पर कवि प्रेमी है पुजारी भी; वह फूल चुनता है सजाता भी है; और गुंथे हुए फूलों के हार में काँटों को  भी सवांरता है.……………………



कुछ ऐसा ही है अमित अग्रवाल जी की पहली कविताओं की आलीशान  पेश्कश…"चिटकते कांचघर" जो नाज़ुक ख्वाबों को संजों कर आंसुओं में बिछा देती है शब्दों के कालीन पर और पढ़नेवाले को सावधान करती  है "ओह! ज़रा  देख कर पाओ रखें, मेरे महबूब,  कहीं  मसले नहीं, न कहीं मैले हो जाए.… यह मेरा दिल है  दस्तरखान नहीं । 

12 comments:

  1. It's a bliss to read Amitji's Hindi poems..he conveys so much in so few words... :-)

    ReplyDelete
    Replies
    1. Yes you are right Moni and the expressions are exquisite

      Delete
  2. This review has increased my curiosity for the book. Now I want to read it. :-)

    ReplyDelete
    Replies
    1. Please do and let me know how you like it

      Delete
  3. जितनी सुंदर कविताएं, उतनी ही सुंदर और भावपूर्ण समीक्षा । आपने कवि के मनोभावों और दृष्टिकोण को बाखूबी पहचाना है, समझा है, दिल में उतारा है । जो कवि ने कहना चाहा है, वह आपके खूबसूरत अल्फ़ाज़ के जरिये हम तक पहुँच गया है ।

    ReplyDelete
  4. I am honoured and grateful, Geetashree, for this very very beautiful review. I am humbled too for the reference of great poets alongside my humble collection...
    I can not thank you enough in words:) for this awesome write:) I do appreciate the time and effort you must have spent on this:) Am deeply indebted:):)

    ReplyDelete
  5. Great review, Dear. So profound & exhaustive. :)

    ReplyDelete
  6. lovely poetry! I will search this book on FK :)

    ReplyDelete