कवियों ने "रात" शब्द को अपने कविताओं में नाना प्रकार से व्यवहार में लाये हैं | सोचिये तो इस शब्द में ऎसी क्या कशिश है कि कवियों के मन को लुभा जाती है ? हालांकि रात शब्द अनेकों नकारात्मक विशेषणों से कलुषित है। रात को ही मनुष्य की अवचेतन (sub-conscious) मन घिनौले व्याधियों को जन्म देती है । रात के अंधेरों में ही जघन्य अपराधों की दुनिया उजागर होती है । रात की आग़ोश में दिल के सोये हुए दर्द जागृत होते है। रात चैन हरती भी है, सुख के सपनें भी दिखाती है, रात कल्पनाओं की तिलिस्मी नजारें जगे आँखों के सामने ला खड़ा करती है तो यह रात ही हमें अपने अधूरेपन का एहसास दिला जाती है । रात विचित्र है, रात रहस्यमयी है, रात स्वप्निली है, रात अनोखी है। रात ऐसा समा बांधती है कि हमारे अंतर्मन की गहरे अनुभूतियों से हमारे चेतन मन का परिचय होता है। भूले भटके यादें इसी रात को ही हमारे ज़हन का दरवाज़ा खटखटाते है। और अनायास ही कवि कह उठता है कि "रात भर सर्द हवा चलती रही, रात भर हमने अलाव तापा … रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने "
कवि ने रात के कई रूप दिखाए ……………… "रात दुल्हन जैसी", "रात भिखारन", "रात नशीली सी", " रात बंजारन", "प्यासी रात", " बासी रात", "तड़पती रात", "बरसती रात " , "गूँगी रात ", "बोलती रात", "बेवा रात", "जलती रात " "खुश्क रात", "गीली रात", "शर्मीली रात" "हठीली रात" ……… अनगिनत विश्लेषण , अनेकों उदाहरण ..............
पर मैं कहती हूँ
पूनम नहीं
अमावस भी नहीं
रात रात है
लौ सी है जली
फिर बर्फ सी गली
कायनात है